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________________ ९८ : श्रमण/जनवरी-जून २००२ संयुक्तांक की उच्च भूमिका तक पहुँच जाता है, वह स्व में संलीनता प्राप्त कर लेता है और परमात्मा हो जाता है। यद्यपि सिद्धान्ततः जैनदर्शन में ईश्वर का खण्डम किया गया है पर व्यावहारिक रूप से इस धर्म में भी कालान्तर में हिन्दू धर्म के प्रभाव से उस ईश्वर का प्रवेश हो गया जो हमारी भौतिक मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला है। वस्तुतः तीर्थङ्कर किसी की स्तुति या निन्दा से न तो प्रसन्न होता है, न अप्रसन्न। पर अन्यान्य दर्शनों की भाँति जैनदर्शन में आर्त मानव के कल्याणार्थ अन्तःप्रेरणापुञ्ज के रूप में ईश्वरत्व का समावेश पाया जाता है। जैनदर्शन में परमात्मा सम्बन्धी उपर्युक्त विचारों को हमने अपने शोधप्रबन्ध “जैनदर्शन में परमात्मा का स्वरूप एवं स्थान" में गुम्फित करने का प्रयास किया है। इस दृष्टि से सम्पूर्ण शोधप्रबन्ध को हमने पाँच अध्यायों में विभक्त किया है प्रथम अध्याय- इस अध्याय में हमने आत्मा, ब्रह्म और ईश्वर सम्बन्धी अवधारणा, आत्मा, ब्रह्म और ईश्वर शब्द का अर्थ विश्लेषण, आत्मा और परमात्मा, स्वरूप और सन्दर्भ, परमात्मा और ईश्वर की अवधारणाएँ और अनीश्वरवादी अवधारणाओं का तात्पर्य तथा अनीश्वरवादी सम्प्रदाय में परमात्मा सम्बन्धी अवधारणा- परमात्मा की अवधारणा का महत्त्व और उपयोगिता की गवेषणा की है। इस अध्याय में हमने यह दिखाने का प्रयास किया है कि आत्मा के मौलिक, सार्वभौम और अन्तस्थ सिद्धान्त के क्रमिक अन्वेषण के रूप में प्रारम्भ हमें वेदों से करना पड़ता है। वेदों की अभिरुचि का मुख्य केन्द्र- वरुण, इन्द्र, रुद्र, चन्द्रमा आदि देवता हैं, जिनकी स्तुति उपासना से मृत्यु लोकवासी मनुष्य अभिलषित वस्तुओं को प्राप्त कर सकता है। धीरे-धीरे वैदिक ऋषि बहुदेववाद की असन्तोषप्रद धारणा से ऊब कर निखिल विश्व के आदि कारण उस परमतत्त्व की खोज में तत्पर हुए, जो सबका मूल व सर्वनियन्ता है। इसी प्रक्रिया में वह परमसत् को बाह्य जगत् में न पाकर अपने 'स्व' में ढूँढ़ना आरम्भ किया जिसका विस्तृत विवेचन आगे चलकर वेद के अन्तिम भाग उपनिषदों में हुआ। आत्मतत्त्व के चिन्तन की जो धारा उपनिषदों में प्रवाहित हुई उसका विकास समाप्त नहीं हुआ। कालक्रम से विकसित होने वाले विविध वैदिक दर्शनों (मुख्य रूप से आस्तिक षड्दर्शन) में आत्मतत्त्व चिन्तन प्रधान विषय बन गया। उपनिषदोत्तर कालवर्ती दार्शनिकों ने आत्मा के स्वरूप का स्वतन्त्र दृष्टि से गम्भीरतापूर्वक गहन चिन्तन और तत्सम्बन्धी अपनी धारणाएं प्रस्तुत की जिसका विस्तृत विवरण शोधप्रबन्ध के अगले अध्यायों में है। . द्वितीय अध्याय- इस अध्याय में जिन विषयों पर विवेचन है, वे हैं- जैनदर्शन और त्रिविध आत्मा की अवधारणा, जैनदर्शन में जीव और आत्मा (समानता और अन्तर) त्रिविध आत्मा की अवधारणा और ऐतिहासिक विकासक्रम, त्रिविध आत्मा की अवधारणा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
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