SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में परमात्मा का स्वरूप एवं स्थान : ९७ ही समस्त आचार-विचार का आधार माना गया। जैन दर्शन में आत्मा के बहिरात्मा, अन्तरात्मा व परमात्मा ये तीन भेद किये गये। बहिरात्मा और अन्तरात्मा जहाँ कर्म परमाणुओं से संयुक्त जीव के ही दो रूप हैं, वहीं परमात्मा आत्मा का शुद्ध मुक्त स्वरूप है। दूसरे शब्दों में आत्मा ही परमात्मा है- “अप्पा सो परमप्पा"। आत्मा और परमात्मा में स्वरूपतः कोई भेद नहीं हैं अन्तर केवल कर्मावरण का है। निरावरण शुद्ध चेतना ही परमात्मा है। वह केवल ज्ञान, केवल दर्शन, स्वभाव अनन्त चतुष्टय से युक्त शाश्वत, अविनाशी तथा समस्त अन्तःबाह्य विभावों से मुक्त है। अत: जैन दर्शन में परमात्मा, आत्मा की ही नित्य शुद्ध अवस्था है। परमात्मा का दूसरा रूप ईश्वर है, जिसे भारतीयदर्शन में जगत् के आदि कारण के रूप में माना गया है। ईश्वर की अवधारणा को सृष्टिमूलक, प्रयोजनमूलक आदि आधारों पर सिद्ध करने का प्रयास किया गया है। परमात्मा को सृष्टिकर्ता के रूप में मानने वाले दार्शनिक यह मानते हैं कि यह जगत् एक कार्य-कारण के अनिवार्य नियम द्वारा सञ्चालित है, सृष्टि कार्य होने से उसका मूल कारण परमात्मा है। - जैनदर्शन में परमात्मा या ईश्वर की ऐसी किसी भी सत्ता का निषेध किया गया है, जो इस विश्व का सृजनकर्ता, पालक व संहारक, नित्य, पूर्ण और मनुष्य के सद्, असद् कर्मों का फल प्रदाता है। जैनदर्शन यह मानता है कि सृष्टि अनादि है। जितने भी दर्शन ईश्वर को सृष्टिकर्ता सिद्ध करने का प्रयास करते हैं, वे अनेक विसंगतियों में पड़ जाते हैं, तथा जगत् और स्रष्टा की, सुख-दुःख के वैषम्य की युक्ति-युक्ति व्याख्या नहीं कर पाते। अत: परमात्मा ईश्वर नहीं अपितु आत्मा की ही परम विशुद्ध अभिव्यक्ति है। परमात्मा को पाना अन्तत: अपने विशुद्ध रूप को ही पाना है। प्रत्येक आत्मा विराट् शक्ति का देदीप्यमान पुञ्ज है। ईश्वरत्व या परमात्म भाव बहिर्गत नहीं बल्कि उसी में है। प्रत्येक आत्मा में परमात्मा होने की क्षमता निहित है। जो इस क्षमता को प्रकट कर लेती हैं, वे परम विशुद्ध आत्माएं संसार सागर को पार कर अपने शुद्ध स्वरूप में अनन्त काल तक अवस्थित रहती हैं। ये मुक्त आत्माएं ही परमात्मा, सर्वज्ञ और तीर्थङ्कर कहलाती हैं। जैनों का तीर्थङ्कर कोई ईश्वर या अवतार नहीं है, वह तो आध्यात्मिक विशुद्धि को प्राप्त हो चुका साधारण मानव है। कर्मजन्य समस्त दोषों से मुक्त होकर वह आत्मशुद्धि के महान् शिखर पर पहुँच जाता है और समस्त विश्व का ज्ञाता-द्रष्टा बन जाता है। अत: जैनधर्म में मनुष्य से बढ़कर कोई प्राणी नहीं है। जैनदर्शन की विशेषता है कि उसने मनुष्य के भाग्य को उसके हाथों में सौंप दिया है और कर्मों का फलनियन्ता किसी ईश्वर विशेष का सर्वथा निषेध किया। वस्तुत: जैनदर्शन के अनुसार मानवीय चेतना का चरम विकास ही ईश्वर तत्त्व है। परमात्मा या ईश्वर कोई एक व्यक्ति विशेष नहीं अपितु एक आध्यात्मिक भूमिका विशेष है जिसे पाने में हर मानव सक्षम है, जो आध्यात्मिक विकास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525046
Book TitleSramana 2002 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2002
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy