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The Philosopy subordinating Difference to Identity,
The Philosopy co-ordinating both Identity and Difference.5
उपर्युक्त पञ्च अवधारणाओं में से जैन अवधारणा का उल्लेख पांचवें वर्ग में किया है। जैन दर्शन के अनुसार सत् वह है जो भेद और अभेद सापेक्ष हो । उमास्वाति की सत् की परिभाषा में उत्पादव्यध्रौव्यत्व' और गुणपर्यायात्मकत्व दोनों का समावेश हो
जाता है।
आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों की संयुक्त अवस्था को द्रव्य कहा है। " अन्यत्र द्रव्य के परिमाणात्मक स्वरूप की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं- एक द्रव्य के भीतर जो अतीत, वर्तमान और अनागत अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याय होती है वह द्रव्य उतना ही होता है।' सिद्धसेन ने द्रव्य के सन्दर्भ में पर्याय की चर्चा की है गुण की नहीं, क्योंकि वे मूलतः गुण और पर्याय को अभिन्न मानते हैं। जैन दर्शन में द्रव्य के छः प्रधान भेद किये गये हैं— जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल। द्रव्य के दो भेद संयोग और समवाय द्रव्य भी मिलते हैं। इसके अतिरिक्त द्रव्य के मूर्त-अमूर्त, क्रियावान् भाववान्, एक-अनेक अपेक्षा, परिणामी व नित्य अपेक्षा, सप्रदेशी - अप्रदेशी, क्षेत्रवान् - अक्षेत्रवान्, सर्वगत-असर्वगत आदि भेद भी मिलते हैं।
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गुण का स्वरूप और प्रकार
द्रव्य के सहभावी धर्म को गुण कहते हैं । आगम साहित्य में मूलतः द्रव्य और पर्याय की चर्चा है। कहीं-कहीं गुण की भी चर्चा उपलब्ध होती है; किन्तु वहां गुण का वह अर्थ अभिप्रेत नहीं है, जो वर्तमान सन्दर्भ में विवक्षित है। आचाराङ्गसूत्र में एक स्थल पर आया है— ' जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे । १° यहां गुण का अर्थ इन्द्रिय-विषय है। इसी प्रकार व्याख्याप्रज्ञप्ति में पञ्चास्तिकाय के सन्दर्भ में 'गुण' शब्द का प्रयोग अनेकशः हुआ है; किन्तु वहां गुण का अर्थ सहभावी धर्म के अर्थ में न होकर उपकारक शक्ति के अर्थ में है। प्राचीन आगम साहित्य में सहभावी व क्रमभावी - दोनों ही धर्मों का पर्याय पद से निरूपण किया गया है। अनुयोगद्वार और उत्तराध्ययन में 'गुण' का ज्ञेय के सन्दर्भ में स्वतन्त्र निरूपण हुआ है, पर अनुयोगद्वार और उत्तराध्ययन की परम्परा उत्तरकालीन है। उत्तराध्ययनसूत्र में द्रव्य को गुणों का आश्रय न मानकर गुणों को एकमात्र द्रव्याश्रित सिद्ध किया है। वस्तुतः गुण द्रव्य के आश्रित रहते हैं, यह परिभाषा गुणों का द्रव्य के साथ नैरन्तर्य सूचित करती है ।
उत्तराध्ययन में गुण और पर्याय का स्वतन्त्र लक्षण किया गया है। उमास्वाति भी द्रव्य की परिभाषा में गुण और पर्याय दोनों का उल्लेख किया है। गुण की परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा है कि 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः । ११ उमास्वाति की इस परिभाषा
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