________________
से द्रव्य की दो कसौटियों का निर्देश किया है, जो उन-उन सद्भूत पर्यायों को प्राप्त करता है तथा जो सत्ता से अनन्यभूत हो, वह द्रव्य है। उमास्वाति ने द्रव्य का लक्षण सत् तथा 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं' किया है। अर्थात् जो उत्पत्ति और विनाश को प्राप्त होते हुए भी ध्रुव या नित्य रहता है- वह द्रव्य है। कुन्दकुन्द के अनुसार जो अपने अस्तित्व स्वभाव को न छोड़ते हुए उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त होने के साथ गुणवान्
और पर्यायवान् होता है, वह द्रव्य है। ध्रौव्य स्वभावमय नित्य, परिणमनशील अर्थ में प्रयुक्त होने वाले इस द्रव्य के अनेक पर्यायवाची शब्द उपलब्ध होते हैं यथा- सत्ता, सत् या सत्व, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि ये नौ शब्द सामान्यत: द्रव्य शब्द के वाचक हैं। जैन दर्शन में सत् और द्रव्य पर्यायवाची हैं। सांख्य प्रकृति पुरुष के अर्थ में, चार्वाक भूतचतुष्टय के अर्थ में और न्याय-वैशेषिक परमाणुवाद के रूप में द्रव्य शब्द को ग्रहण करते हैं। जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य सत् है और द्रव्य का स्वभाव है उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का ऐक्य परिणाम। आगमों में सत् के स्थान पर 'अस्तिकाय' और 'द्रव्य' इन दो शब्दों का ही प्रयोग देखा जाता है। द्रव्य की सर्वप्रथम परिभाषा उत्तराध्ययन (२८/६) में है जहाँ 'गुणानां आसवो दव्वो' कहकर गुणों के आश्रयस्थल को द्रव्य कहा गया है; किन्तु इसके पूर्व की गाथा में यह भी कहा गया है कि द्रव्य, गुण और पर्याय सभी को जानने वाला ज्ञान है (उत्तरा०, २८/५)। उत्तराध्ययन की यह परिभाषा न्याय-वैशेषिक दर्शन के अधिक निकट है। द्रव्य की अन्य परिभाषा 'गुणानां समूहो दव्वो' और 'गुणपर्यायवद्रव्यम्' के रूप में भी मिलती है। अत: द्रव्य के स्वरूप की दृष्टि से विचार करने पर मुख्य रूप से दो अवधारणायें उभर कर सामने आती हैं- द्रव्य का सत् अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त होना तथा गुण और पर्याययुक्त होना। ये दोनों ही परिभाषायें आचार्य उमास्वाति (२सरी-३सरी शती) ने अपने तत्त्वार्थसूत्र में दी है। इसी को और स्पष्ट करते हुए कुन्दकुन्द ने प्रवचनसार (९५-९६) में कहा है कि 'जो अपरित्यक्त स्वभाव वाला उत्पाद, व्यय और ध्रौव्ययुक्त तथा गुण, पर्यायसहित है, वह द्रव्य है। अनुयोगद्वार में 'नाम' के अन्तर्गत- द्रव्यनाम, गुणनाम और पर्यायनाम इन तीन प्रकारों का उल्लेख है। वहां द्रव्य के अर्थ में सत संज्ञा उपलब्ध नहीं होती। उमास्वाति ने अन्य भारतीय दार्शनिक परम्पराओं में स्वीकृत सत् की अवधारणा का तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते हुए सत् का स्वरूप निर्धारित किया, जो मुख्यतया अनेकान्तवाद पर आधारित है। जैन दर्शन सत् का आधार न केवल नित्यता या अनित्यता बल्कि नित्यानित्यता मानता है। डॉ० पद्मराजे ने सत् की अवधारणा के आधार पर भारतीय दर्शनों को पांच वर्गों में विभक्त किया है
The Philosopy of Being or Identity, The Philosopy of Becoming (change) or Difference, The Philosopy subordinating Identity to Difference,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org