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१२७ तैलप 'द्वितीय' की ही वंश-परम्परा में राजा जयसिंह 'प्रथम' हुए, जिन्होंने १०१५ से १०४० ई० तक राज्य किया। यह राजा भी जैनधर्म का भक्त था। आचार्य वादिराज, दयापाल और पुष्पषेण सिद्धान्तदेव इसी के शासनकाल में हए। श्रवणबेलगोल की पार्श्वनाथवसति के एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण शिलालेख (नं० ५४ (६७) में वादिराज की छह पद्यों (३९-४५) में प्रशंसा की गयी है जिससे पता चलता है कि चालुक्य चक्रवर्ती के जयकटक में उन्होंने जयलाभ किया था। जयसिंह ने ही उन्हें 'जगदेकमल्ल' उपाधि प्रदान की थी। वादिराज ने भी अपने यशोधरचरित आदि ग्रन्थों में जयसिंह का उल्लेख किया है। 'मथ्ललकामोद' जयसिंह 'प्रथम' की उपाधि थी। श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० ५५(६९) में मलधारि मुनीन्द्र गुणचन्द्र (पद्य २०) के लिये 'बलिपुर मल्लिकामोद शान्तीशचरणार्चकः' कहा गया है। इससे यह कहा जा सकता है कि बलिपुर में शान्तिनाथ की प्रतिष्ठा जयसिंह नरेश (मल्लिकामोद उपाधिधारी) ने ही करायी थी। इसी शिलालेख में यह भी कहा गया है कि वासवचन्द्र ने अपने वाद के पराक्रम से चालुक्य राजधानी में 'बाल सरस्वती' की उपाधि प्राप्त की थी। यही शिलालेख चालुक्य नरेश आहवमल्ल सोमश्वर 'प्रथम' (१०४३-१०६८ ई०) द्वारा एक जैनाचार्य को 'शब्दचतुर्मुख' की उपाधि दिये जाने का भी उल्लेख करता है। सोमेश्वर 'प्रथम' ने जैनधर्म के स्थायित्व के लिये अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य किये। त्रिभुवनतिलक जिनालय जैसे अनेक जैन-मन्दिरों का निर्माण उसने ही कराया। उसके पत्र सोमेश्वर 'द्वितीय' ने भी शान्तिनाथ मन्दिर आदि जैसे अनेक जैन मन्दिर बनवाये। सोमेश्वर ‘द्वितीय' का भाई विक्रमादित्य 'षष्ठ' था जिसका उल्लेख श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० १४४ में आया है। इस राजा ने चालुक्य गंगपेमनिडि चैत्यालय बनवाया और अपने दण्डनाथ के अनुरोध पर उस मन्दिर के प्रबन्ध आदि के लिये एक गाँव दान में दिया था। दान ग्रहण करने वाले मुनि रामसेन मूलसंघ, सेनगण और पोगरि गच्छ के महासेन व्रती के शिष्य थे। विक्रमादित्य 'षष्ठ' ने श्रवणबेलगोल के आसपास भी कई जैन मन्दिरों का पुनर्निर्माण कराया था जिन्हें राजाधिराज चोल ने भस्मसात् कर दिया था। श्रवणबेलगोल की कत्तले बसदि से प्राप्त लेख नं० ५५ में मुनि वासवचन्द्र को 'बाल सरस्वती की' उपाधि से विभूषित करने वाला सम्भवतः यही राजा था।
चालुक्य नरेशों के अधिकांश शिलालेख धारवाड़ जिले में प्राप्त हुए हैं। इससे यह स्पष्ट है कि धारवाड़ और उसके आसपास के क्षेत्र पर जैनधर्म का काफी प्रभाव था। लक्ष्मेश्वर भी जैनधर्म के प्रचार-प्रसार का एक प्रमुख केन्द्र था। ऐहोल प्रशस्ति, आडूर अभिलेख, अष्ठागेरि अभिलेख, श्रवणबेलगोल अभिलेख तथा शिगगांव में उपलब्ध ताम्रपत्र आदि इस तथ्य को उद्घाटित करने के लिये पर्याप्त हैं कि चालुक्य शासकों ने जैनधर्म को लोकप्रिय बनाने का पूरा अवसर प्रदान किया था। जैन धर्मावलम्बी न होने पर भी इन राजाओं ने धर्मनिरपेक्षता के आधार पर जैनधर्म को अपना संरक्षण दिया था।
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