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नहीं बढ़ पाया। पिष्टपुर (आन्ध्र) को जीतकर उसने अपने अनुज कुब्जविष्णुवर्धन को ६१५ ई० में उसका शासक नियुक्त किया। इसी से वेंगी की पूर्वी चालुक्य शाखा का प्रारम्भ हुआ। पुलकेशिन् 'द्वितीय' ने पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मन् को जीतकर कांची (कांजीवरम्) पर अधिकार किया तथा कावेरी को पार कर चोलों, चेरों और पाण्ड्यों को अपनी मित्र बनाया।
द्वितीय अभिलेख लक्ष्मेश्वर (धारवाड़) में प्राप्त हुआ है। इसमें चालुक्य सामन्त सन्दक राजा दुर्गशक्ति द्वारा पुलिगेरे नगर में शंख जिनेन्द्र चैत्यालय की पूजा व्यवस्था के लिये क्षेत्र दान दिये जाने का उल्लेख है। इस अभिलेख की सत्यता पर कुछ विद्वानों ने प्रश्न चिह्न खड़ा किया है।
पुलकेशिन् 'द्वितीय' के गुरु रविकीर्ति (रविभद्र) के शिष्य भट्ट अकलंक भी कदाचित कुछ समय इसी के आश्रय में रहे। वादामी और अजन्ता के प्रसिद्ध गुहा-मन्दिरों का निर्माण इसी समय हुआ। चीनीयात्री ह्वेनसांग के विवरण से पता चलता है कि इसके शासनकाल में जैनधर्म बौद्धधर्म की अपेक्षाकृत अच्छी स्थिति में था।
६४१-६४२ ई० में पल्लवनरेश नरसिंहवर्मन् ने चालुक्यों पर भीषण आक्रमण कर दिया। फलतः पुलकेशिन् ‘द्वितीय' युद्ध में मारा गया और वातापी को पल्लव नरेश
ध्वस्त कर दिया। बाद में पुलकेशिन् 'द्वितीय' के पुत्र साहसतुंग विक्रमादित्य 'प्रथम' (६५५-६८० ई०) ने एक लम्बे संघर्ष के बाद गंगों की मदद से नरसिंहवर्मन् को हराकर अपना राज्य वापिस लिया। इस उपलक्ष्य में उसने 'रणरसिक' विरुद्धारण किया। काञ्ची पर भी उसने अधिकार किया। पांड्यों के सहयोग से भी उसने अनेक युद्ध जीते। प्रसिद्ध जैन आचार्य भट्ट अकलंक इस राजा के गुरु थे जिन्होंने ऐहोल विद्यापीठ तथा कन्हेरी के बौद्ध विहार में क्रमश: जैन-बौद्ध दर्शन का अध्ययन किया। रविकीर्ति के बाद वे ऐहोल विद्यापीठ के अध्यक्ष भी रहे। इस राजा के शासन काल का एक जैन अभिलेख मिलता है जिसमें राजा द्वारा कुरुतकुण्टे ग्राम दान दिये जाने का उल्लेख है। दान ग्रहण करने वाला रवि शर्मा वसरि संघ का था। सम्भव है, इस वसरि संघ का कोई सम्बन्ध जैन संघ-सम्प्रदाय से रहा हो। इस अभिलेख को कुछ विद्वान् सही नहीं मानते।
विक्रमादित्य 'प्रथम' के बाद उसका पुत्र विनयादित्य (६८०-६९६ ई०) शासक हुआ। उसने नरसिंह वर्मन् 'द्वितीय', कन्नौज के यशोवर्मन, काबेर, पारसीक, सिंहल नरेश, गंग आदि भूपतियों को युवराज विजयादित्य (६९७-७३३ ई०) के सहयोग से पराजित किया। विक्रमादित्य के राजगुरु निरवद्य पण्डित तथा विजयादित्य के राजगुरु उदयदेव पण्डित थे। इन राजाओं ने अनेक जैन मन्दिरों का निर्माण कराया तथा आचार्यों को दानपत्र भेंट किये। पुष्पसेन, विमलचन्द, कुमारनन्दि, अनन्तवीर्य आदि जैनाचार्य
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