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अनुश्रुति के अनुसार चालुक्य सोमवंशीय क्षत्रिय मानव्यगोत्रीय और हारीति के पुत्र इस वंश का प्रथम ज्ञात राजा जयसिंह बड़ा पराक्रमी योद्धा था। उसने महाराष्ट्र के राष्ट्रिकों से कुछ प्रदेश हस्तगत कर वातापी (बीजापुर के अन्तर्गत आधुनिक वादामी, को अपनी राजधानी बनाया। उसकी वीरता से प्रभावित होकर दुर्विनीत गंग ने उसके साथ अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। पल्लव नरेश चण्डदण्ड से युद्ध करते समय वह मारा गया। दुर्विनीत ने इसका बदला चण्डदण्ड को मारकर और जयसिंह के पुत्र रणराग को सिंहासन पर बैठाकर लिया। ऐहोल और अलक्तक इस राज्य के प्रधान नगर थे। इसी के शासनकाल में दुर्गशक्ति ने पुलिगेरे के शंखजिनालय को दान दिया था।
रणराग का ही पुत्र सत्याश्रय पुलकेशिन् 'प्रथम' (५३५ - ५६६ ई०) हुआ जो चालुक्य वंश का सही राज्य-संस्थापक माना जाता है। वातापी, अलक्तकनगर और ऐहोल इसी के शासनकाल में जैन केन्द्र बन चुके थे। अलक्तक नगर (अल्तेम) में एक अभिलेख प्राप्त हुआ है जिसमें कुहुण्डि विषय से पुलकेशीय सामन्त सामियार ने अलक्तक नगर में एक जिनालय शक सम्वत् ४११ में बनवाया तथा सम्राट् सत्याश्रय की आज्ञा से कुछ गांवों का दान दिया था। इसी शिलालेख में कलकोयल शाखा के जैनाचार्य सिंहनन्दि चित्रकाचार्य, नागदेव और जिननन्दि का उल्लेख है। पुलकेशी 'प्रथम' के उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मा (५६६-५९७ ई०) ने भी जिनालय को भूमि दान दिया था। ऐहोल शिलालेख में उसे नलों, मौर्यों और कदम्बों के लिये 'विनाश की निशा' कहा गया है। गंगों और अलूबों को भी उसने पराजित किया था। इसी के शासनकाल में आचार्य रविकीर्ति ने ५८५ ई० में ऐहोल के समीप मेगुती में एक जिन- मन्दिर तथा विद्यापीठ की स्थापना की थी। यह राजा जिनभक्त था।
इसके बाद कीर्तिवर्मन के भाई मंगलेश (५९७-६०८ ई०) ने राज्य किया। वह विष्णुभक्त था। वातापी में विष्णु का भव्य गुहा मन्दिर इसी ने बनवाया था। रेवल द्वीप और कल्चुरियों पर उसने विजय प्राप्त कर 'रणविक्रान्त' विरुद् धारण किया था। इसके शासनकाल का कोई भी जैन अभिलेख अभी तक प्राप्त नहीं हुआ।
मंगलेश को मारकर पुलकेशिन् 'द्वितीय' (६०८-६४२ ई०) ने राज्य पर अधिकार किया। यह बड़ा पराक्रमी और नीति-निपुण राजा था। उसने प्रथमतः अपने राज्य की स्थिति सुदृढ़ की और फिर सैन्य सफलताओं की ओर ध्यान दिया। गंगों, अलूबों, कदम्बों, मौर्यो, लाटों, मालवों और गुर्जरों को पराजित किया। इसके शासनकाल के दो जैन अभिलेख मिलते हैं। प्रथम अभिलेख ऐहोल प्रशस्ति है जिसके लेखक जैन आचार्य रविकीर्ति पुलकेशिन् 'द्वितीय' के धर्मगुरु थे। मेगुटि जैन मन्दिर में उत्कीर्ण यह काव्यनिष्ठ प्रशस्ति रविकीर्ति को कालिदास और भारवि के समकक्ष बैठ देती है। उसमें उन्होंने पुलकेशिन् 'द्वितीय' के सारे कार्यकलापों का सुन्दर साहित्यिक वर्णन किया है। सम्राट हर्षवर्धन दक्षिण की ओर इसी प्रचण्ड नरेश की शक्ति के कारण
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