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ध्रुव के बाद उसका पुत्र गोविन्द 'तृतीय' जगत्तुंग (७९३-८१४ ई०) राज्याभिषिक्त हुआ। इसी काल में विद्यानन्दि, अनन्तकीर्ति, अनन्तवीर्य, त्रिभुवन स्वयम्भू आदि महाकवि हुए। तदनन्तर अमोघवर्ष 'प्रथम' (८१४-८७८ ई०), कृष्ण 'द्वितीय' अकालवर्ष (८७८-९१४ ई०), इन्द्र 'तृतीय' (९१४ - ९२२ ई०), अमोघवर्ष 'द्वितीय' (९२२-९२५ ई०), गोविन्द 'चतुर्थ' सुवर्णवर्ष ( ९२५ ९३६ ई०), अमोघवर्ष 'तृतीय' बद्दिग (९३६ - ९३९ ई०) तथा कृष्णराज 'तृतीय' अकालवर्ष (९३६-९६७ ई०) राजा हुए। अमोषवर्ष 'प्रथम' निश्चित रूप से जैनधर्मानुयायी था । आचार्य जिनसेन उनके धर्मगुरु थे। जिनसेन के बाद गुणभद्र, महावीराचार्य, पाल्यकीर्ति आदि जैनाचार्य भी उसके राज्याश्रय में रहे। सेनापति बंकेय भी जैनधर्म का भक्त था। इस समय जैनधर्म एक राष्ट्रधर्म की स्थिति में आ गया था। राजा अमोघवर्ष स्वयं विद्वान् और साहित्यकार था इसलिए वह विद्वानों को उन्मुक्त होकर आश्रय दिया करता था । अमोघवर्ष का पुत्र कृष्ण 'द्वितीय' भी जैनधर्मानुयायी था। महाकवि गुणवर्म तथा हरिचन्द सम्भवत: इसी के आश्रम में रहे हैं।
अकालवर्ष 'तृतीय' भी अत्यन्त दूरदर्शी तथा धर्मप्रेमी राजा था। उसने गंगनरेश भूतुग, मरुलदेव मारसिंह आदि गंगनरेशों के साथ कूटनीतिक तथा पारिवारिक सम्बन्ध स्थापित किये। विशेषतः मारसिंह के साथ उसकी अधिक घनिष्ठ मैत्री थी। उसने मारसिंह के सहयोग से ही चोल, पाण्ड्य, गुर्जरों और किरातों को पराजित किया, गंगवज्र व रक्कसमणि को पीछे हटाया तथा चालुक्य और परमारों की शक्ति से डूबते हुए राष्ट्रकूट साम्राज्य को ध्वस्त होने से बचाया (वही, भाग १, नं० ६०, पृ० १४३-४४)।
कृष्ण 'तृतीय' की मृत्यु के बाद उसका कनिष्ठ भ्राता खोट्टिग नित्यवर्ष (९६७-९७२ ई०) अभिषिक्त हुआ। इसके शासनकाल में भी गंगनरेश मारसिंह और उसका सेनापति चामुण्डराय राष्ट्रकूटवंश का संरक्षण कर रहे थे। जब वे दोनों अन्यत्र युद्धों में व्यस्त थे, सियक हर्ष परमार ने मान्यखेट पर आक्रमण किया और खोट्टिग को समाप्त कर दिया। खोट्टिग के बाद कर्क 'द्वितीय' (९७२ ई०) और उसके बाद राष्ट्रकूट का अन्तिम राजा इन्द्र 'चतुर्थ' (९७४ ई०) हुआ जिसका शासन कमगण्डमनहल्लि शिलालेख के अनुसार ९८२ ई० तक रहा। इन्द्र 'चतुर्थ' मारसिंह का अनुज था। मारसिंह ने ही उसका राज्याभिषेक किया था और उसी ने राष्ट्रकूट नरेश कृष्णराज 'तृतीय' के लिये गुर्जर देश को विजित किया, विपक्षी अल्ल को मदचूर्ण किया और कृष्णराज के सेना की रक्षा की । इन्द्र 'चतुर्थ' के विषय में गन्धवारण वसति के उत्तर की ओर स्थित स्तम्भ पर उत्कीर्ण शिलालेख में यह कहा गया है कि उसने श्रवणबेलगोल में ९८२ ई० में सल्लेखना ग्रहण की। यह भी उल्लेखनीय है कि कृष्ण के राज्यकाल में ही पोन्न, सोमदेव और अपभ्रंश के महाकवि पुष्पदन्त ने अपनी साहित्य- सर्जना की।
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