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की उपासना में संलग्न थे। उन्होंने राज्याश्रय और जनाश्रय पाकर समाज, साहित्य और संस्कृति की चेतना में नया प्राण फूका था । दक्षिण भारत की सर्वतोमुखी समृद्धि में उनका अनुपम योगदान अविस्मरणीय है।
हम जानते हैं कि जैनधर्म की आधारशिला भगवान् आदिनाथ ने उत्तर भारत में स्थापित की, पर उसके विकास का श्रेय दक्षिण भारत को प्राप्त है। वह दक्षिण भारत के 'गोपुर ' स्वरूप महाराष्ट्र से आन्ध्र, तमिलनाडु होता हुआ कर्णाटक और श्रीलंका तक पहुँचा। बारह हजार मुनियों के साथ भद्रबाहु तथा चन्द्रगुप्त मौर्य द्वारा दक्षिण में प्रवेश की घटना इस मान्यता को स्वीकार करने के लिये विवश करती है कि जैनधर्म दक्षिण में भद्रबाहु के पूर्व निश्चित ही एक लोकप्रिय धर्म के रूप में अवस्थित था इसलिए दक्षिण की ओर प्रयाण सम्भव हुआ । बौद्ध ग्रन्थ महावंस की परम्परा तो उसके अस्तित्व को श्रीलंका में पार्श्वनाथ के काल तक ले जाती है।
कर्णाटक प्रदेश जैन संस्कृति को समृद्ध करने में शीर्षस्थ रहा है। गंग, कदम्ब, राष्ट्रकूट, चालुक्य, होयसल आदि राजकीय वंशों ने इस क्षेत्र में कला का जो उन्नयन किया वह अपने आप में अद्वितीय है। राष्ट्रकूटवंश के तो अधिकांश नरेश जैनधर्मानुयायी और जैनधर्मानुरागी थे।
राष्ट्रकूट वंश दक्षिणापथ के प्राचीन रट्ठिकों (अशोक के शिलालेखों के राष्ट्रिकों) तथा चन्द्रवंशीय क्षत्रियों से सम्बद्ध रहा है। उनकी एक शाखा लट्टलूरु (लाटूर, आन्ध्र प्रदेश के बीदर जिले का एक स्थान) में स्थापित थी। अनेक लेखों में उन्हें 'लट्टलूरपुरावराधीश्वर' कहा गया है। लट्टलूरपुर के राष्ट्रकूट ६२५ ई० के आसपास एलिनपुर (एलोरा) आ पहुँचे। इन्द्र 'प्रथम' के पुत्र दन्तिदुर्ग ने ७४२ ई० के लगभग इसी नगर को अपनी राजधानी बनाया। ७५७ ई० में उसने वातापी के चालुक्यों का अन्त कर स्वयं को सम्राट् घोषित कर दिया। इसी समय आचार्य वीरसेन हुए जिन्होंने एलोरा के समीपवर्ती वाटनगर (वाटग्रामपुर) तथा चामरलेण के गुहा मन्दिरों में रहकर अपनी साहित्य - साधना की ।
इसके बाद दन्तिदुर्ग का चाचा कृष्ण 'प्रथम' अकालवर्ष शुभतुंग (७५७ ई० - ७७३ ई०) सिंहासन पर आसीन हुआ। एलोरा के 'कैलास मन्दिर का निर्माता यही राजा था। आचार्य परवादिमल्ल भी लगभग इसी समय कृष्णराज द्वारा सम्मानित हुए थे। कृष्णराज के बाद गोविन्द 'द्वितीय' (७७३ ई० से ७७९ ई० तक) तथा ध्रुव (७७९ ई० से ७९३ ई० तक) राज्यासीन हुए। ध्रुव के राज्याश्रय में महाकवि स्वयम्भू ने पउमचरिउ, हरिवंश आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की। पुन्नागवंशीय जिनसेन का हरिवंशपुराण (७८३ ई०) तथा वीरसेन का धवला ग्रन्थ (७८० ई०) इसी समय की रचनाएँ हैं। विद्यानन्दि, परवादिमल्ल आदि आचार्य भी इसी समय हुए हैं।
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