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________________ ७८ आघात से वृक्ष हट गये हैं, पैरों से खिंचकर लतायें उसके पैरों से पाश जैसी लिपट गयी हैं और उसके भय से हिरण-समूह इधर-उधर भाग गया है। यह कहकर तपोवनवासी दुष्यन्त से भय प्रकट करते हैं व हिंसा रोकने के लिए तत्पर हो जाते हैं। अभिज्ञानशाकुन्तलम् के द्वितीय अंक में विदूषक राजा दुष्यन्त के मृगया व्यसन की कटु भर्त्सना करता है व आखेट की निन्दा करते हुए मृगया के अनेक दोषों को बताता है— देखिए इस स्थल का संवाद (५) विदूषक - (लम्बी साँस लेकर) अरे! देख लिया। इस मृगयाव्यसनी राजा की मित्रता से तो मैं तंग आ गया । "यह हिरण जा रहा है", "यह सुअर जा रहा है", "वह व्याघ्र जा रहा है" इस प्रकार चिल्लाते हुए दोपहर में भी एक वन से दूसरे वन में वृक्षों की पतियों में, जिनमें ग्रीष्म ऋतु के कारण वृक्षों की छाया विरल है, घूमना पड़ता है। पत्तों के मिलने के कारण पहाड़ी नदियों का कसैला जल पीना पड़ता है। अनिश्चित समय पर भोजन करना पड़ता है, अधिकतर सूल पर भुना हुआ माँस ही खाना होता है, मृगों के पीछे घोड़ा दौड़ाने से हड्डियों के जोड़ों में पीड़ा उत्पन्न हो जाने से रात में भी सोने को नहीं मिलता" -- " राजा - आखेट की निन्दा करने वाले विदूषक ने मेरा उत्साह ठण्डा कर दिया है हम आश्रम के निकट स्थित हैं, अतः आज तो भैंसें अपनी सींगों से बार-बार आलोडित जलाशय के जल में स्वच्छतापूर्वक स्नान करें, मृगों के झुण्ड छाया में मण्डली बनाकर बैठे हुए निर्भय होकर जुगाली करें, बड़े-बड़े सुअर निर्भय होकर तलैयों में मोथा उखाड़ें और मौर्वी के ढीले बन्धन वाला मेरा धनुष भी विश्राम करे। अन्यत्र — हिंसा न करने के लिए राजा सेना को निर्देश देता है राजा- तो आगे गए हुए वन घेरने वालों को लौटा लो। मेरे सैनिकों को इस प्रकार रोक दो कि जिससे वे तपोवन में बाधा न पहुँचाएँ ।” (६) सप्तम अंक में बालक सर्वदमन सिंह शावक के साथ खेलते हुए दर्शाया गया है । यह बालक दुष्यन्त का औरस पुत्र है, सिंह के बच्चे को खींचकर वह कहता है "अपना मुख खोल, मैं तेरे दाँतों को निगूँगा ।" उस बालक की परिचर्या में आई हुई दो तपस्विनी बालक को ऐसा करने के लिए मना करती हैं, पर वह मानता नहीं है । कहने मात्र से यह बालक नहीं मानेगा- ऐसा सोचकर एक तपस्वी स्त्री उसका मन अन्यत्र बहलाने के लिए मिट्टी के बने हुए मोर को लाने के लिए वहाँ से चली गई और दूसरी तापसी ने राजा को देखकर कहा कि इस बालक को, शेर के बालक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525040
Book TitleSramana 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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