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(२) महाकवि कालिदास द्वारा वैखानस नाम के शिष्य के माध्यम से राजा को निम्न स्थल पर स्पष्ट रूप से अपने राज्य की सीमा में रहने वाले निरपराध पशु-पक्षियों की रक्षा करने व उन पर बाण साध कर हिंसा न करने का उपदेश दिया गया है
तत्साधु कृत सन्धान प्रतिसंहर सायकम्।
आर्तत्राणाय वः शस्त्रं न प्रहर्तुमनागसि।। (अच्छी प्रकार से जिसके लक्ष्य को साध लिया गया है ऐसे बाण को रोक लो, क्योंकि आपका शस्त्र पीड़ितों की रक्षा के लिए है, निरपराध पर प्रहार करने के लिए नहीं।)
राजा दुष्यन्त ‘यह २. लया' कहकर बाण को रोक लेता है। तपस्वी वैखानस राजा दुष्यन्त को अहिंसक वृत्ति के इस आदेश का तुरन्त पालन करने के कारण, प्रोत्साहन देते हुए प्रशंसा करता है 'पुरुवंश के दीपक तुम्हारे लिए यह उचित ही है।' 'जिसका पुरुवंश में जन्म हुआ है, उस तुम दुष्यन्त के लिए यह उचित ही है (अर्थात् हिंसा न करने की बात को मान लेना)। तपस्वी दुष्यन्त को आशीर्वाद देते हुए कहता है, 'इसी प्रकार अपने गुणों से युक्त चक्रवर्ती पुत्र को प्राप्त करो।' साथ आए अन्य दोनों तपस्वी भी भुजा उठाकर अहिंसावृत्ति से प्रसन्न होने के कारण यही आशीर्वाद दोहराते हैं और राजा प्रणामपूर्वक ‘स्वीकार कर लिया' कहकर स्वीकार करता है।
(३) तपस्वी वैखानस राजा दुष्यन्त को आश्रम में आने के लिए आमन्त्रित करता है। आश्रम की सीमा के निकट पहुँचकर राजा और सूत के निम्न संवाद से ज्ञात होता है कि विशेष रूप से आश्रमों में ऐसा विश्वसनीय अहिंसा का वातावरण था, जहाँ पर सभी पशु-पक्षी निर्भय होकर अन्य तपोवनवासियों की तरह विचरण करते थे और उन्हें किसी भी दूसरे जीव-जन्तु या आश्रमवासी द्वारा मारे जाने का लेशमात्र भी भय नहीं था। राजा(चारों ओर देखकर) सूत! 'वस्तुत: बिना कहे ही पता लग रहा है कि तपोवन के आश्रम की सीमा का आरम्भ हो गया है।' सूत- कैसे, राजा- क्या आप नहीं देख रहे हैं, क्योंकि यहाँ-कहीं वृक्षों के नीचे शुक हैं, मध्य में जिनके ऐसे तरुविवरों के मुख से गिरे हुए तृण धान्य दिखाई दे रहे हैं- कहीं विश्वास के उत्पन्न हो जाने के कारण अपनी गति को न छोड़ने वाले हिरण रथ के शब्द को सहन कर रहे हैं।' इन संवादों से आश्रम में अहिंसकवृत्ति व शान्ति और विश्वास का विशेष वातावरण दर्शाया गया है।
(४) अन्यत्र- तपोवन के प्राणियों के प्रति रक्षा की उत्कट भावना दृष्टिगोचर होती है- जैसे इस संवाद में, 'हे तपस्वियों! तपोवन के प्राणियों की रक्षा के लिए तैयार हो जाओ, क्योंकि सुना जा रहा है कि मृगयाविहारी दुष्यन्त पास ही है।'
कालिदास ने आखेटव्यसनी राजा दुष्यन्त से डरे हुए प्राणियों का चित्रण करके उसके ही मित्र विदूषक से निन्दा कराई है, यथा- हमारी तपस्या के लिए साक्षात् विघ्नस्वरूप यह जंगली हाथी प्रवेश कर रहा है। वह रथ देखने से भयभीत है, उसके
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