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'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' नाटक में अहिंसात्मक तत्त्व
डॉ० मधु अग्रवाल
महाभारत के आदिपर्व में उपलब्ध शकुन्तलोपाख्यान की कथा में परिवर्तन और परिवर्द्धन कर महाकवि कालिदास ने संस्कृत साहित्य के सर्वप्रसिद्ध नाटक अभिज्ञान शाकुन्तलम् की रचना की। महाकवि कालिदास द्वारा प्रणीत इस नाटक में कवि का वन्य पशु-पक्षियों के प्रति अहिंसा का भाव परिलक्षित है। आदिपर्व में उपलब्ध मल कथानक में पशु-पक्षियों का वर्णन नहीं है। अत: अभिज्ञानशाकुन्तलम् नाटक के अङ्कों में पशु-पक्षियों को चित्रित करना व उनके प्रति अहिंसा वृत्ति रखने की प्रेरणा देना, कहीं उनके बारे में महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ देकर जीवन में उनके प्रति मित्रवत् व्यवहार का प्रदर्शन करना, कवि का अपना परिकल्पन और परिवर्द्धन है। मूल कथानक का नायक दुष्यन्त एक विलासो राजा के रूप में चित्रित किया गया है और राजमहल तथा आश्रम में शकुन्तला के दर्शन और कण्व ऋषि के वृत्तान्त के साथ ही कथा का अन्त हो जाता है। महाकवि कालिदास द्वारा पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम, मित्रता और अहिंसात्मक प्रवृत्ति के प्रसङ्ग निम्नलिखित स्थलों पर प्राप्य हैं
(१) प्रथम अङ्क की प्रस्तावना में नटी और सूत्रधार के वार्तालाप से अभिज्ञान शाकुन्तलम्नाटक के प्रारम्भ किये जाने की सूचना के उपरान्त सद्य: प्रारम्भ ग्रीष्म ऋतु का आश्रय लेकर नटी एक गीत गाती है, जिसको सुनकर सूत्रधार कहता है कि जिस प्रकार हिरण के द्वारा राजा दुष्यन्त बलात् दूर ले जाया गया था, उसी प्रकार मैं तुम्हारे सुमधुर गीत से बलात् हर लिया गया हूँ और इस उक्ति के साथ ही रथ पर बैठा हुआ राजा दुष्यन्त सारथी के साथ हिरण का पीछा करते हुए दृष्टिगोचर होता है और इस बीच में दो शिष्यों के साथ एक तपस्वी उपस्थित होकर राजा से यह अनुरोध करता है कि “राजन्! आश्रम मृगोऽयं न हन्तव्यो. न हन्तव्यः” इति। ऐसा सुनकर दुष्यन्त तुरन्त अपना वाण रोक लेता है। इससे सन्तुष्ट होकर तपस्वी राजा को "अपने सदृश चक्रवर्ती पुत्र को प्राप्त करो' ऐसा आशीर्वाद देता है।
रीडर, संस्कृत-विभाग, रानी भाग्यवती देवी स्नातकोत्तर महिला महाविद्यालय, बिजनौर, उत्तर प्रदेश।
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