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________________ ७३ है ('धीरस्वना' होती है), वैसे ही गंगा भी गम्भीर कल-कल शब्द करती है। इस प्रकार इस सन्दर्भ में वाक्सौन्दर्य, अर्थ- सौन्दर्य और भाव- सौन्दर्य के साथ ही पावनतामूलक एवं समगश्लेषपरक बिम्ब-सौन्दर्य का एकत्र समवाय हुआ है। गंगा के शृङ्गारपरक सौन्दर्य को शान्स रस की ओर मोड़ते हुए महाकवि ने लिखा है कि उत्तम गाय की तरह गंगा भी पूजनीय और जगत् को पवित्र करने वाली है, साथ ही वह जिनवाणी के समान जान पड़ती है : गुरुप्रवाह प्रसृतां तीर्थकामैरुपासिताम् । गम्भीरशब्दसम्भूतिं जैनीं श्रुतिमिवामलाम् ।। (श्लोक १३७) जिनवाणी जिस प्रकार गुरु- प्रवाह, अर्थात् आचार्य परम्परा से प्रसारित होती है; तीर्थ, अर्थात् धर्म के आकांक्षी पुरुषों द्वारा उपासित होती है, गम्भीर शब्दों वाली और दोषरहित है, उसी प्रकार गंगा भी विशाल जल प्रवाह वाली है, तीर्थकर्मियों द्वारा उपासित होती है, गम्भीर घोष करने वाली तथा निर्मल और निष्पंक है। यहाँ गंगा का गाय और जिनवाणी से सादृश्य की प्रस्तुति से पवित्रताबोधक चाक्षुष बिम्ब-सौन्दर्य का विधान हुआ है। महाकवि आचार्य जिनसेन नारी - सौन्दर्य के समानान्तर ही पुरुष - सौन्दर्य का भी उदात्त चित्र आँकने में निपुण हैं । स्त्री-सौन्दर्य का रमणीय चित्र ऋषभदेव की माता मरुदेवी, जो रूप, सौन्दर्य, कान्ति, शोभा, बुद्धि, द्युति और विभूति में इन्द्राणी के समान थीं, की शारीरिक संरचना ( द्र०, द्वादश पर्व, श्लोक संख्या १२ - ५८ ) के रूप में प्रस्तुत हुआ है, तो पुरुष - सौन्दर्य का भव्य चित्र राजा वज्रसेन के पुत्र वज्रनाभि की शारीरिक संरचना ( द्र० एकादश पर्व, श्लोक संख्या १५-३६) के रूप में। अवश्य ही इन दोनों प्रकार के सौन्दर्योद्भावन में महाकवि ने अपनी काव्यप्रौढ़ि का प्रकर्ष प्रस्तुत करने में विस्मयकारी कवित्व शक्ति का परिचय दिया है। इसी प्रकार महाकवि ने कोमल बिम्ब के समानान्तर परुष बिम्ब का भी अतिशय उदात्त सौन्दर्योद्भावन किया है। इस सन्दर्भ में दशम पर्व में वर्णित नरक के विभिन्न क्रूर और घृणित दृश्य उदाहरणीय हैं। | विशेषकर नारकियों को कढ़ाई में खौलाकर रस बनाने या उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर कोल्हू में पेरने आदि के दृश्यों में वीभत्स बिम्बों का रोमांचकारी विधान हुआ है। नरक के दृश्यों में महाकवि जिनसेन द्वारा प्रस्तुत परुष और वीभत्स बिम्बों की द्वितीयता नहीं है । सौन्दर्य के तत्त्वों में अन्यतम वाग्वैदग्ध्य की दृष्टि से महाकवि द्वारा प्रस्तुत वज्रनाभि के तपो वर्णन प्रसंग में 'प्रायोवेशन' शब्द का तथा मरुदेवी के शारीरिक चित्रण में 'वामासे' शब्द के निरुक्ति-वैविध्य का चमत्कार द्रष्टव्य है। इन दोनों की निरुक्ति-प्रक्रिया में काव्य और व्याकरण का समेकित अर्थ-सौन्दर्य अतिशय रोचक होने के साथ ही ततोऽधिक रंजनकारी भी है। यह पदगत वाग्वैदग्ध्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525040
Book TitleSramana 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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