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भी सातिशय मोहक हो उठा है। हम कह सकते हैं कि महाकवि जिनसेन का यह मानवीकरण उनकी सर्वात्मवादी दृष्टि का प्रकृति के खण्डचित्रों में सहदयसंवेद्य कलात्मक प्रयोग है। महाकवि ने मानवीकरण जैसे अलङ्कार-बिम्बों के द्वारा विराट् प्रकृति को काव्य में बाँधने का सफल प्रयास किया है, जिसमें मानव-व्यापार और तद्विषयक आंगिक चेष्टा का प्रकृति पर समग्रता के साथ आरोप किया गया है। प्रकृति पर मानव-व्यापारों के आरोप की प्रवृत्ति जैनेतर महाकवि कालिदास आदि में भी मिलती है, किन्तु वनस्पति में जीवसिद्धि को स्वीकारने वाले आचार्य जिनसेन आदि महाकवियों में यह प्रवृत्ति विशेष रूप से परिलक्षित होती है।
महाकवि आचार्य जिनसेन के आदिपुराण के अनुशीलन से यह स्पष्ट है कि वह शब्दशास्त्र के पारगामी विद्वान् थे। इसलिए उनकी काव्यभाषिक सृष्टि में वाग्वैदग्ध्य के साथ ही बिम्ब और सौन्दर्य के समाहार-सौष्ठव का चमत्कारी विनिवेश हुआ है। उनकी काव्यभाषा में व्याकरण का चमत्कार तो है ही, काव्यशास्त्रीय वैभव की पराकाष्ठा भी है, जिसमें सामाजिक चिन्तन और लोकचेतना का भी समानान्तर विन्यास दृष्टिगत होता है।
महाकवि ने आदिपुराण के छब्बीसवें पर्व (श्लोक संख्या १२८ से १५०) में चक्रवर्ती भरत महाराज के दिग्विजय के वर्णन-क्रम में गंगा नदी की विराट अवतारणा की है। इसमें महाकवि ने गंगा के प्रवाह के साथ भरत महाराज की कीर्ति के प्रवाह का साम्य प्रदर्शित किया है। इस नदी के वर्णन की काव्यभाषा में वाग्वैदग्ध्य तो है ही, मनोरम बिम्बों की भी भरमार है, साथ ही सौन्दर्य के तत्त्वों का भी मनभावन उद्भावन हुआ है।
सौन्दर्य- विकसित कला-चैतन्य से समन्वित आदिपुराण न केवल काव्यशास्त्र, अपित सौन्दर्यशास्त्र के अध्ययन की दृष्टि से भी प्रभूत सामग्री प्रस्तुत करती है। काव्य-सौन्दर्य के विधायक मूलतत्त्वों में पद-लालित्य या पदशय्या की चारुता, अभिव्यक्ति की वक्रता, वचोभंगी या वाग्वैदग्ध्य का चमत्कार, भावों की विच्छित्ति या भंगिमा, अलङ्कारों की शोभा, रस का परिपाक, रमणीय कल्पना, हृदयहारी बिम्ब, रम्य-रुचिर प्रतीक आदि प्रमुख हैं। कहना न होगा कि इस महापुराण में सौन्दर्य-विधान के इन समस्त तत्त्वों का विनियोग हुआ है।
कलाचेता आचार्य जिनसेन ने अपने इस महाकाव्य में समग्र पात्र-पात्रियों और उनके कार्य-व्यापारों को सौन्दर्य-भूयिष्ठ बिम्बात्मक रूप देने का श्लाध्य प्रयत्न किया है। समकालीन भौगोलिक स्थिति, राजनीति, सामाजिक चेतना एवं अर्थव्यवस्था के साथ ही लोक-मर्यादा, वेश-भूषा, आभूषण-परिच्छेद, संगीत-वाद्य, अस्त्र-शस्त्र, खान-पान, आचार-व्यवहार, अनुशासन-प्रशासन आदि सांस्कृतिक उपकरणों एवं
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