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महाभारत और जिनसेन के आदिपुराण में शिव तत्त्व
डॉ० पुष्पलता जैन महाभारत कदाचित् प्राचीनतम वैदिक ग्रन्थ है जिसमें भगवान् शिव का समुचित और विकसित रूप का वर्णन मिलता है। महाभारत के पूर्व रामायण में शिव के नाम से कोई विशेष उल्लेख नहीं दिखाई देता। इससे इतना तो निश्चित रूप से अनुमान लगाया जा सकता है कि शिव जैसे अवैदिक देवता महाभारतकाल तक आते-आते लोकप्रिय हो गये।
यहाँ प्रश्न उठता है, यदि शिव अवैदिक देवता रहे हैं तो उनका पूर्व रूप क्या था जिसने उन्हें 'शिव' रूप तक पहुँचाया। इसकी मीमांसा करने पर यह तथ्य सामने आता है कि शिव का पूर्वरूप जैनधर्म के आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव या वृषभदेव होना चाहिए। इस तथ्य के प्रमाण के रूप में आचार्य जिनसेन का आदिपुराण प्रस्तुत किया जा सकता है।
महाभारत के अनुशासनपर्व का सत्रहवाँ अध्याय इस सन्दर्भ में विशेष द्रष्टव्य है। इसके पूर्व यहाँ भगवान् वासुदेव श्रीकृष्ण और उपमन्यु के बीच हुए (सोलहवें अध्याय में) संवाद का स्मरण कराना चाहूँगी जिसमें उपमन्यु ने तण्डि नामक सत्ययुगी ऋषि का उल्लेख किया जिसने दस हजार वर्ष तक शिव की आराधना की और परम फल प्राप्त किया। तण्डि ने भगवान् शिव की स्तुति करते हुए कहा कि ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, विश्वदेव और महर्षि भी आपको यथार्थ रूप से नहीं जानते। इससे भगवान् शिव बहुत सन्तुष्ट हुए और बोले, हे ब्रह्मन्! तुम अक्षय, अविकारी, दुःखरहित, यशस्वी, तेजस्वी एवं दिव्यज्ञान से सम्पन्न होओगे। यह कहकर वर मांगने का आदेश दिया। तण्डि ने उत्तर में मात्र इतना कहा कि प्रभो! आपके चरणारविन्द में मेरी सुदृढ़ भक्ति बनी रहे।
ब्रह्मा शतक्रतुर्विष्णुर्विश्वेदेवा महर्षयः । न विदुस्त्वामिति ततस्तुष्टः प्रोवाच तं शिवः ।। अक्षयश्चाव्ययश्चैव, भविता दुःखवर्जितः ।
यशस्वी तेजसा युक्तो दिव्यज्ञानसमन्वितः ।। *. अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, एस०एफ०एस०कालेज, नागपुर विश्वविद्यालय, नागपुर
(महाराष्ट्र).
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