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________________ २१ सर्वावधि में हो जाता है। अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित के साथ प्रतिपाती और अप्रतिपाती ये आठों भेद देशावधि के अन्तर्गत आते हैं। परमावधि में आठ में से छः ही होते हैं, हीयमान और प्रतिपाती नहीं होते। सर्वावधि के अन्तर्गत अनुगामी, अननुगामी और अप्रतिपाती ये चार ही भेद होते हैं।६४ देशावधि और परमावधि के पुन: तीन-तीन भेद होते हैं- जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट। अनुगामी- अनुगामी अवधिज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न होता है, उसी क्षेत्र में कार्यकारी होता है। अननुगामी- जो उत्पत्ति-क्षेत्र के अतिरिक्त क्षेत्र में बना नहीं रहता, वह अननुगामी है। वर्धमान- जो क्षेत्र, शुद्धि आदि की दृष्टि से उत्पत्ति समय से क्रमश: बढ़ता जाये, वह वर्धमान है। हीयमान- जो ज्ञान उत्पत्तिकाल में अत्यधिक प्रकाशमान हो; किन्तु बाद में क्रमश: घटता जाय, वह हीयमान अवधिज्ञान है। अवस्थित- जो न बढ़ता है और न कम होता है, जैसा उत्पत्तिकाल में होता है वैसा ही बना रहता है; किन्तु जन्मान्तर अथवा केवलज्ञान होने पर नष्ट हो जाता है, वह अवस्थित अवधिज्ञान है। अनवस्थित- जो कभी घटता है, कभी बढ़ता है, कभी प्रकट और तिरोहित होता है उसे अनवस्थित अवधिज्ञान कहते हैं। .. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से भी अवधिज्ञान के अनेक विकल्प होते हैं। द्रव्य की दृष्टि से परमाणु, द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी आदि विकल्पों का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। क्षेत्र की दृष्टि से अंगुल का असंख्येय भाग आदि विशिष्ट क्षेत्रों के विकल्पों का ज्ञान होता है। काल की दृष्टि से आवलिका का असंख्येय भाग आदि विशिष्ट कालखण्ड के विकल्पों का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इसी प्रकार भाव की दृष्टि से वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के एक गुणात्मक, द्विगुणात्मक आदि विकल्पों का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है।६५ मनःपर्यवज्ञान सामान्य तौर पर मन के पर्यायों को जानना मनापर्यवज्ञान है। मनःपर्यवज्ञान के विषय में दो प्रकार की विचारधाराएँ देखने को मिलती हैं- पहली परम्परा यह मानती है कि मनःपर्यव ज्ञानी चिन्तित अर्थ का प्रत्यक्ष करता है तो दूसरी परम्परा ठीक इसके विपरीत यह मानती है कि मनःपर्यव ज्ञानी मन की विविध अवस्थाओं का प्रत्यक्ष तो करता है, किन्तु उन अवस्थाओं में जो अर्थ रहा हुआ है उसका अनुमान करता है। तात्पर्य है एक परम्परा अर्थ को प्रत्यक्ष मानती है और दूसरी परम्परा मन को प्रत्यक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525040
Book TitleSramana 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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