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________________ अतीत विद्यमान तथा भविष्य तीनों कालों से सम्बन्धित विषयों में प्रवृत्त होता है। मतिज्ञान पारिणामिक है अर्थात् अपने को रूपान्तरित करता रहता है, जबकि श्रुतज्ञान मतिज्ञान के पश्चात् आता है और आप्तवचन से उद्बोध होता है, अत: वह मति से शुद्धतर ज्ञान होता है। अवधिज्ञान जब जीव विशिष्ट सात्विक साधनों की सहायता से अवधि ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय करता है, तब दूर स्थित पदार्थों का भी ज्ञान स्वयं आत्मा की योग्यता के कारण उत्पन्न हो जाता है, यही अवधिज्ञान है। अवधिज्ञान अतीन्द्रिय ज्ञान का प्रथम सोपान है। इसका सम्बन्ध अवधान या प्रणिधान से है। इसकी उत्पत्ति के दो हेतु हैं- भव और क्षयोपशम। वस्तुत: अवधिज्ञान क्षायोपशमिक ही है। भले ही वह ज्ञान देव या नारक का हो अथवा मनुष्य या तिर्यञ्च का। अवधि ज्ञानावरण का क्षयोपशम दोनों प्रकारों में आवश्यक है। नन्दीचूर्णि में क्षयोपशम के दो प्रकारों का उल्लेख है- गुणरहित क्षयोपशम और गुण की प्रतिपत्ति से होनेवाला क्षयोपशम। गुणरहित क्षयोपशम के स्पष्टीकरण हेतु चूर्णिकार ने बड़ा ही सुन्दर रूपक प्रस्तुत किया है- आकाश बादलों से आच्छन्न है, बीच में कोई छिद्र रह गया, उस छिद्र में से स्वाभाविक रूप से सर्य की कोई किरण निकलती है और द्रव्य को प्रकाशित करती है। ठीक इसी प्रकार अवधि ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर यथाप्रवृत्त अवधिज्ञान की प्राप्ति होती है, यही गुण के बिना होने वाला क्षयोपशम है। दूसरे प्रकार में गुण शब्द चारित्र का द्योतक है। अत: चारित्रगुण की विशुद्धि से अवधिज्ञान की उत्पत्ति के योग्य क्षयोपशम होता है। यह गुण प्रतिपत्ति से होनेवाला क्षयोपशम है। इन्हीं दो प्रकारों को भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय के नाम से विभूषित किया गया है। भवप्रत्यय देवों और नारकों को होता है और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान व्रत, नियम आदि के पालन करने से प्राप्त होता है। यह ज्ञान मनुष्य या तिर्यञ्च को होता है। देव और नारक की भाँति मनुष्यादि के लिए यह ज्ञान जन्मसिद्ध नहीं है, अपितु व्रत,नियम आदि गुणों के पालन से प्राप्त किया जाता है। गुण प्रत्यय के छ: भेद हैं-अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित और अनवस्थित।६१ अवधिज्ञान का यह विभाजन व्यक्ति के स्वभाव-गुण की दृष्टि से किया गया है। क्षेत्रादि की दृष्टि से इसके तीन विभाजन हैं—देशावधि, परमावधि और सर्वावधि।६२ षट्खण्डागम में अवधिज्ञान के तेरह भेद बताये गये हैं- (१) देशावधि, (२) परमावधि, (३) सर्वावधि, (४) हीयमान, (५) वर्धमान, (६) अवस्थित, (७) अनवस्थित, (८) अनुगामी, (९) अननुगामी, (१०) सप्रतिपाति, (११) अप्रतिपाति, (१२) एक क्षेत्र और (१३) अनेक क्षेत्र।६३ किन्तु देखा जाये तो इन तेरह प्रकारों का समावेश देशावधि, परमावधि और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525040
Book TitleSramana 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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