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तो मानती है, किन्तु अर्थ का ज्ञान अनुमान से मानती है।
पं० सुखलाल जी संघवी के शब्दों में- “मन:पर्यायज्ञान का विषय मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तु है या चिन्तनप्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाएँ हैं- इस विषय में जैन परम्परा में ऐकमत्य नहीं। नियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र एवं तत्त्वार्थसूत्रीय व्याख्याओं में पहला पक्ष वर्णित है, जबकि विशेषावश्यकभाष्य में दूसरे पक्ष का समर्थन किया गया है, परन्तु योगभाष्य तथा मज्झिमनिकाय में जो पर चित्त ज्ञान का वर्णन है उसमें केवल दूसरा ही पक्ष है जिसका समर्थन जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने किया है। योगभाष्यकार तथा मज्झिमनिकायकार स्पष्ट शब्दों में यही कहते हैं कि ऐसे प्रत्यक्ष के द्वारा दूसरों के चित्त का ही साक्षात्कार होता है, चित्त के आलम्बन का नहीं। योगभाष्य में तो चित्त के आलम्बन का ग्रहण हो न सकने के पक्ष में दलीलें भी दी गयी हैं।"६६ पण्डित जी के इस कथन से स्पष्ट होता है कि तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार चिन्त्यमान वस्तु का ज्ञान मनापर्यवज्ञान है; किन्तु पण्डित जी द्वारा तत्त्वार्थसूत्र की की गयी व्याख्या से यह स्पष्ट होता है कि चिन्तन प्रवृत्त मनोद्रव्य की अवस्थाओं का ज्ञान मनःपर्यवज्ञान है। तत्त्वार्थसूत्र की अपनी व्याख्या में उन्होंने लिखा है- चिन्तनीय वस्तु के भेद के अनुसार चिन्तन में प्रवृत्त मन भिन्न-भिन्न आकृतियों को धारण करता रहता है। वे आकृतियाँ ही मन के पर्याय हैं और उन मानसिक आकृतियों को साक्षात् जाननेवाला ज्ञान मनःपर्यवज्ञान है। इस ज्ञान से चिन्तनशील मन की आकृतियाँ जानी जाती हैं पर चिन्तनीय वस्तुएँ नहीं जानी जा सकती।६७ पण्डितजी के उपर्युक्त कथन एक-दूसरे के विपरीत प्रतीत होते हैं। क्योंकि यह तो स्पष्ट है कि मनोद्रव्य और मनोवर्गणा के पुद्गलस्कन्ध, मनापर्यवज्ञान के विषय हैं, जो पौद्गलिक मन का निर्माण करते हैं। मनापर्यवज्ञानी उन पुद्गल स्कन्धों का ही साक्षात्कार करते हैं। मन के द्वारा चिन्त्यमान वस्तुएँ मनःपर्यवज्ञान के विषय नहीं हो सकते, क्योंकि चिन्त्यमान वस्तुओं को मन के पौद्गलिक स्कन्धों के आधार पर अनमान से जाना जाता है। आचार्य हरिभद्र ने भी अपनी वृत्ति में लिखा है- मनापर्यवज्ञान से मन के पर्यायों अथवा मनोगत भावों का साक्षात्कार किया जाता है। वे पर्याय अथवा भाव चिन्त्यमान विषयवस्तु के आधार पर बनते हैं।६८ भगवती में मनःपर्यव ज्ञानी की निम्नलिखित अर्हताएं निर्धारित की गयी हैं- ऋद्धि प्राप्त, अप्रमत्त संयत, संयत, सम्यग्दृष्टि, पर्याप्तक, संख्येयवर्षायुष्क, कर्मभूमिज, गर्भावक्रान्तिक मनुष्य और मनुष्य।६९
___ मन:पर्यवज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति, दो प्रकार हैं। जो विषय को सामान्य रूप से जानता है, वह ज्ञान ऋजुमति है। विपुल का अभिप्राय है- अनेक विशेषग्राही। अर्थात् अनेक विशेषताओं से युक्त मनोद्रव्य के ज्ञान को विपुलमति ज्ञान कहते हैं। जैसे- किसी ने घड़े का चिन्तन किया, साथ ही वह घड़ा किस देश, किस काल, किस भाव आदि में बना है, इन विशिष्ट पर्यायों का ज्ञान होना विपुलमति ज्ञान है।
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