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________________ १८ कसोरा उसे तुरन्त सोख लेता है, यहाँ तक कि उसका कोई नामोनिशान नहीं रहता। इसी प्रकार आगे भी एक-एक कर डाली गयी अनेक जल बूंदों को वह कसोरा सोख लेता है। अन्त में ऐसा समय आता है जब वह जल बूंदों को सोखने में असमर्थ होकर उनसे भीग जाता है और उसमें डाले हुए जलकण समूह रूप में इकट्ठे होकर दिखाई देने लगते हैं। कसोरे की आर्द्रता पहले-पहल जब मालूम होती है, उसके पूर्व भी उसमें जल था, पर उसने इस तरह जल को सोख लिया था कि (जल के बिल्कुल तिरोभूत हो जाने से) दृष्टि में आने जैसा नहीं था, परन्तु कसोरे में वह था अवश्य। जब जल की मात्रा बढ़ती है और कसोरे की सोखने की शक्ति कम होती है तब कसोरे में आर्द्रता दिखाई देने लगती है और जो जल कसोरे के पेट में नहीं समा सकता है वह ऊपर के तल में दिखाई देने लगता है। यही अवस्था व्यञ्जनाग्रह से अर्थावग्रह तक की होती है। व्यंजनावग्रह के चार तथा अर्थावग्रह के छ: भेद होते हैं जिसका उल्लेख पूर्व में सारणी के अन्तर्गत किया जा चुका है। व्यंजनावग्रह के चार भेद इसलिए बताये गये हैं कि चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता। नन्दी५६ में अवग्रह के लिए अवग्रहणता, उपधारणता, श्रवणता, अवलम्बनता और मेधा आदि शब्दों का प्रयोग मिलता है। - ईहा- अवग्रह द्वारा जाने हुए सामान्य विषय का विशेष रूप से निश्चय करने के लिए होनेवाली विचारणा ईहा है। जैसे- ध्वनि सुनाई पड़ी। यह ध्वनि किसकी है? यह प्रश्न जब मन में उठता है तो यह अवस्था ईहा कहलाती है अवाय- ईहा द्वारा ग्रहण किए हए विषय में विशेष का निश्चय हो जाना अवाय है। जैसे- यह निश्चित होना कि ध्वनि अमुक वस्तु या व्यक्ति की है। इसे सम्भावना, विचारणा, जिज्ञासा आदि भी कहते हैं। धारणा- अवाय द्वारा ग्रहण विषय का दृढ़ हो जाना धारणा है। इसमें दृश्य वस्तु का भली प्रकार ज्ञान हो जाता है और जीव के अन्तःकरण पर संस्कार पड़ जाता है। ज्ञान की उपर्युक्त चार अवस्थाओं को इस प्रकार समझा जा सकता है-निद्राग्रस्त व्यक्ति को जब कोई पुकारता है तो निद्रित मनुष्य की श्रोत्रेन्द्रिय के साथ शब्द का संयोग होता है, यह अव्यक्त ज्ञान व्यंजनावग्रह है। तत्पश्चात् उसे ऐसा आभास होता है कि मुझे कोई आवाज दे रहा है, यह अर्थावग्रह है। मुझे कौन आवाज दे रहा है- इस प्रकार का बोध होना ईहा है और मुझे अमुक व्यक्ति आवाज दे रहा है- इस प्रकार दृढ़ निश्चय होना अवाय है तथा उस पुकार को या आवाज को धारण करना धारणा है। अवग्रह, ईहा,अवाय और धारणा-ज्ञानधारा का एक क्रम है, किन्तु मूल है अवग्रह, क्योंकि वह मन-सम्पृक्त इन्द्रिय के द्वारा पदार्थ या वस्तु के सम्पर्क या सामीप्य में होता है। आगे स्थिति बदल जाती है। इन्द्रिय के साथ मन का व्यापार अर्थावग्रह से शुरु होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525040
Book TitleSramana 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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