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________________ १७ स्पर्शेन्द्रिय रसेन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रिय श्रोत्रेन्द्रिय नोइन्द्रिय प्रत्येक के बारह-बारह भेद TTTTT अल्पग्राही - बहुविधग्राही - एकविधग्राही - अक्षिप्रग्राही - अनिश्रितग्राही - क्षिप्रग्राही असन्दिग्धग्राही - निश्रितग्राही बहुग्राही - सन्दिग्धग्राही - अध्रुवग्राही - ध्रुवग्राही इस प्रकार पाँच इन्द्रियाँ और एक मन इन छहों के अर्थावग्रह आदि चार-चार भेद के हिसाब से २४ भेद होते हैं तथा उनमें चार व्यंजनावग्रह के योग से २८ हो जाते हैं और इन सबको बहुग्राही, अल्पग्राही बारह भेदों से गुणा करने पर कुल भेद ३३६ होते हैं। किन्तु इसका एक भंग और प्राप्त होता है। तत्त्वार्थसूत्र में ही पं० सुखलाल जी संघवी ने विवेचना की है कि अर्थावग्रह के जो बारह भेद घटित किये गये हैं वे अर्थावग्रह के व्यावहारिक पक्ष के हैं जबकि उसका एक पक्ष नैश्चयिक भी होता है। वास्तव में व्यावहारिक अर्थावग्रह का कारण नैश्चयिक अर्थावग्रह है और उसका कारण व्यंजनावग्रह है। अत: नैश्चयिक अर्थावग्रह के भी बारह-बारह भेद गिनने चाहिए। इस तरह ३३६ में ४८ भेद जोड़ देने पर ३८४ भेद करते हैं।५२ अब हम इनका अलग-अलग स्वरूप देखेंगे। अवग्रह– अवग्रह ज्ञान की अव्यक्तावस्था है। हमें इतना ही ज्ञात होता है कि 'यह कुछ है'। अर्थात् इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध के पश्चात् का ज्ञान है। अवग्रह के दो भेद हैं- व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह।५३ इन्द्रिय और अर्थ के संयोग को व्यंजनावग्रह कहते हैं। पं० सुखलाल जी संघवी के शब्दों में इन्द्रिय और अर्थ के संयोग की पुष्टि के साथ कुछ काल में तज्जनित ज्ञानमात्रा भी इतनी पुष्ट हो जाती है कि जिससे 'यह कुछ है' ऐसा विषय का सामान्य बोध (अर्थावग्रह) होता है। इस अर्थावग्रह का उक्त व्यंजन से उत्पन्न पूर्ववर्ती ज्ञान व्यापार जो उस व्यंजन की पुष्टि के साथ ही क्रमशः पुष्ट होता जाता है, व्यंजनावग्रह कहलाता है।५४ इसमें विषय का सामान्य बोध भी नहीं होता। यही कारण है कि इसको अव्यक्ततम, अव्यक्ततर, अव्यक्त ज्ञान कहा जाता है। इससे यह स्पष्ट है कि अर्थावग्रह व्यंजनावग्रह के बाद का ज्ञान है; किन्तु नन्दी में अवग्रह के प्रकार बताते समय क्रम से अर्थावग्रह को पहले तथा व्यंजनावग्रह को बाद में बताया गया है।५५ लेकिन ज्ञान की प्रक्रिया की दृष्टि से व्यंजनावग्रह का स्थान पहले है। व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह की अवस्था को समझाने के लिए जैन दर्शन में कसोरे का बहुत ही प्रसिद्ध उदाहरण है जिसका उल्लेख पं०सुखलाल जी ने भी किया है। भटे में से तुरन्त निकाले हए अति रूक्ष कसोरे में पानी की एक बँद डाली जाय तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525040
Book TitleSramana 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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