SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ या प्रतिभाएँ एक-दूसरे से पृथक् होती हैं। ज्ञानमीमांसीय प्रत्ययवाद वह सिद्धान्त है जिसके अनुसार ज्ञान का विषय (Object) और ज्ञान की अन्तर्वस्तु (Contect) एक ही है, क्योंकि मानसिक प्रत्ययों से स्वतन्त्र ज्ञान का कोई विषय नहीं हो सकता। जिसमें अतार्किक ज्ञान-प्रक्रियाओं में, जैसे प्रत्यक्ष और स्मृति में ज्ञेय वस्तुएँ और मन के संवेदन-प्रदत्त (Sense-data) एक ही होते हैं, वह ज्ञानमीमांसीय एकवाद है।६ ज्ञानमीमांसीय वास्तववाद के अनुसार ज्ञान का विषय मन से बाहर स्वतन्त्र अस्तित्व रखता है। व्यापक अर्थ में यह सिद्धान्त सभी ज्ञान-प्रक्रियाओं पर लागू किया जाता है, लेकिन संकीर्ण अर्थ में विषयवस्तु का मनोबाह्य अस्तित्व केवल प्रत्यक्ष-प्रक्रिया के सन्दर्भ में प्रतिपादित किया जाता है। ज्ञान : अर्थ एवं परिभाषा ज्ञान आत्मस्वरूप है जिससे वह स्व और पर दोनों को जानने में समर्थ है। नन्दीचूर्णि में ज्ञान शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गयी है- (१) जानना ज्ञान है, (२) जिससे जाना जाता है वह ज्ञान है और (३) जिसमें जाना जाता है वह ज्ञान है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि जो जानता है वह ज्ञान है, जिसके द्वारा जाना जाये वह ज्ञान है अथवा जाननामात्र ज्ञान है। राजवार्तिक में एवंभूतनय की दृष्टि से ज्ञान को परिभाषित किया गया है। कहा गया है- ज्ञान-क्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है, क्योंकि वह ज्ञान स्वभावी है। यहाँ प्रश्न होना स्वाभाविक है कि यदि आत्मा ज्ञान स्वभावी है अर्थात् आत्मा और ज्ञान एक है तो फिर आत्मा अपने ज्ञान को कैसे जान सकती है? क्या उसके लिए किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता होती है? यदि किसी अन्य ज्ञान की सत्ता स्वीकार करते हैं तो अनवस्था दोष आता है। इस सन्दर्भ में जैन मान्यता है कि ज्ञान अपने-आपको जानता हुआ ही दूसरे पदार्थों को जानता है। वह दीपक की भाँति स्व-पर प्रकाशक है। प्रमाणनयतत्त्वालोक में स्पष्ट वर्णन आया है कि स्व-पर व्यवसायी ज्ञान को प्रमाण कहते हैं।११ नियमसार के अनुसार भी ज्ञान का धर्म दीपक की भाँति स्व-पर प्रकाशकपना है।१२ वास्तव में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान की त्रिपटी ही यथार्थ ज्ञान है। इसमें ज्ञेय और ज्ञान दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है। द्रव्य, गुण और पर्याय ज्ञेय हैं तथा ज्ञान आत्मा का गुण है। यद्यपि ज्ञान और ज्ञेय दोनों स्वतन्त्र हैं फिर भी दोनों में सम्बन्ध है। आचार्य महाप्रज्ञ की दृष्टि में ज्ञान और ज्ञेय में विषय-विषयीभाव का सम्बन्ध है। इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है (१) ज्ञान अर्थ में प्रविष्ट नहीं होता, अर्थ ज्ञान में प्रविष्ट नहीं होता। (२) ज्ञान अर्थाकार नहीं है। (३) ज्ञान अर्थ से उत्पन्न नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525040
Book TitleSramana 2000 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2000
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy