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(४) ज्ञान अर्थरूप नहीं है।
अर्थात इनमें पूर्ण अभेद नहीं है। प्रमाता ज्ञान-स्वभाव होता है, इसलिए वह विषयी है। अर्थ ज्ञेय-स्वभाव होता है इसलिए वह विषय है। दोनों स्वतन्त्र हैं, फिर भी ज्ञान में अर्थ को जानने की और अर्थ में ज्ञान के द्वारा जाने जा सकने की क्षमता है। वही दोनों में कथंचित् अभेद की हेतु है। लेकिन न तो ज्ञेय से ज्ञान उत्पन्न होता है और न ज्ञान से ज्ञेय। हमारा ज्ञान जाने या न जाने लेकिन पदार्थ अपने रूप में अवस्थित रहता है। तात्पर्य है पदार्थ ज्ञान का विषय बने या न बने, फिर भी हमारा ज्ञान हमारी आत्मा में अवस्थित है। यदि हमारा ज्ञान पदार्थ की उपज है तो वह पदार्थ का ही धर्म होगा। हमारे साथ उसका तादात्म्य नहीं हो सकेगा।१४ ज्ञान के मौलिक रूप
सामान्यत: ज्ञान के दो मौलिक रूप होते हैं- प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष में हम इन्द्रिय-उपलब्धों और मानसिक अवस्थाओं को देख सकते हैं। इनकी स्मृति भी हमें स्पष्ट दिखायी पड़ती है। जैसे आँख बन्द करके किसी वस्तु को देखते हैं तो उसे भी पहचान लेते हैं। अप्रत्यक्ष ज्ञान में अनुमान का अंश भी होता है, किन्तु यह क्रिया स्मृति की सहायता से ही होती है। जैसे- दूर चमकीलापन दिखायी पड़ता है और हम कह देते हैं कि वहाँ रेत है। इसका अभिप्राय है हमने पहले भी रेत देखा है और विविध ज्ञानेन्द्रियों ने मुझे विविध गुणों का बोध कराया है। इस समय की चमक पहले देखी हुई चमक के समान जान पड़ती है और हम कह बैठते हैं कि मैं रेत देख रहा हूँ। प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष का यह विश्लेषण अन्य दर्शनों में मिल सकता है जैन दर्शन में नहीं। न्याय दर्शन में इन्द्रियजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष तथा शब्दादिजन्य ज्ञान को परोक्ष कहा गया है। किन्तु जैन दर्शन में प्रत्यक्ष-परोक्ष को ठीक इसके विपरीत विश्लेषित किया गया है। जैन दर्शन के अनुसार जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा की योग्यता से उत्पन होता है वह प्रत्यक्ष है तथा जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है वह परोक्ष है। प्रत्यक्ष-परोक्ष का यह विश्लेषण जैन दर्शन में किया गया उत्तरवर्ती विश्लेषण है, क्योंकि आगमयुग (ईसा पूर्व से ५वीं शताब्दी तक) तक जैन साहित्य में ज्ञान-मीमांसा की ही प्रधानता रही है। प्रमाणान्तर्गत प्रत्यक्ष-परोक्ष का ज्ञानमीमांसा में प्रवेश आर्यरक्षित और उमास्वाति के काल में हुआ है, ऐसा माना जाता है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार प्रमाण का प्रारम्भ करनेवालों में दो प्रमुख आचार्य हैं - "आर्यरक्षित और उमास्वाति। आर्यरक्षित ने अनुयोग का प्रारम्भ पञ्चविध ज्ञान के सूत्र से किया है। उन्होंने प्रमाण की चर्चा ज्ञान-गुण प्रमाण के अन्तर्गत की है। इसका निष्कर्ष है कि प्रमाणमीमांसा का मौलिक आधार ज्ञानमीमांसा ही है। उमास्वाति ने पहले पाँच ज्ञान की चर्चा की है, फिर ज्ञान प्रमाण है इस सूत्र की रचना की है।५ जैनविद्या के मर्मज्ञ प्रो० सागरमल जैन भी ज्ञानमीमांसा में प्रमाण का आगमन
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