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श्रमण / अप्रैल-जून/ १९९९
है। संसार में दो प्रकार के व्यक्ति हैं । एक वर्ग मेधावी, धीर और वीर पुरुषों का है और दूसरा मन्दमति आतुर और कायर लोगों का है, जो मेधावी हैं वे धीर भी हैं। जो मन्दमति हैं वे आतुर और कायर भी हैं।
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वीर पुरुष कौन है ? वीर पुरुष हिंसा में लिप्त नहीं होता - ण लिप्पई छणपएण वीरे (१०६/१८०) और मेधावी अहिंसा के मर्म को जानता है— से मेहावी अणुग्धायणस्स खेयण्णे (१०६ / १८१) । इसके विपरीत कायर मनुष्य हिंसक होते हैं; विषयों से पीड़ित, विनाश करने वाले, भक्षक और क्रूर होते हैं। हिंसा की अपेक्षा से कार दुर्बल नहीं है और न ही वीर बलवान् है । बसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति विषयों में लिप्त कायर व्यक्ति 'लूषक' (हिंसक, भक्षक, प्रकृति क्रूर) होता है।
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धीर पुरुष धैर्यवान् हैं। आतुर अधीर हैं। आतुर लोग हर जगह प्राणियों को दुःख और परिताप देते हैं, इसे स्पष्ट देखा जा सकता है। तत्थ तत्थ पुढो पास, आतुरा परितावेंति (८/१५) । इसका कारण है आतुर मनुष्य आसक्ति से ग्रस्त होता है । यही आसक्ति मनुष्य को आशा / निराशा के झूले में झुलाती है और उसे स्वेच्छाचारी बनाती है; किन्तु धीर पुरुष वह है, जो इस आशा और स्वच्छन्दता को छोड़ देता है आसं च छंदं च विगिंच धीरे (८८/८६) ।
आया जब मनुष्य के दो विपरीत गुण-धर्मी प्ररूपों का उल्लेख करता है, तो क्या वह इनको पूर्णत: एकान्तिक मानता है? क्या मेधावी सदैव मेधावी और मन्दमति पूर्णत: मन्दमति ही रहता है? स्पष्टतः 'मेधावी' और 'मूढ़' एकान्तिक प्ररूप नहीं हैं। आयारो में स्पष्ट दिखाया गया है कि मेधावी पुरुष भी किस प्रकार च्युत होकर पुनः मन्दमति या मूढ़ हो जाते हैं। उत्तरोत्तर आने वाले दुःसह परीषहों को सहन न कर पाने के कारण (२३४/३२) वे अपना प्रयत्न द्वारा अर्जित किया हुआ मुनि-पद छोड़ देते हैं। इसी प्रकार मेधावी आरम्भ से ही मेधावी नहीं होते। वे उत्तरोत्तर ही इस दिशा की ओर अग्रसर होते हैं ।
वस्तुत: मेधावी पुरुष ही मुनि है। मुनि का अर्थ है ज्ञानी । आयारो के अनुसार जो पुरुष अपनी प्रज्ञा से लोक (संसार) को जानता है वह मुनि कहलाता है। ऐसा व्यक्ति धर्मवित् और ऋजु होता है पण्णाणेहिं परियाणइ लोयं मुणीति वच्चे, धम्मविउत्ति अंजू (१२२/५) मुनि को 'कुशल' भी कहा गया है। कुशल का भी अर्थ है - ज्ञानी । कुशल अपने ज्ञान से जन्म-मरण के चक्र का अतिक्रमण कर पुनः न बद्ध होता है और न मुक्त होता है – कुसले पुण णो बद्धे, णो मुक्के (१०६/१८२)।
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आत्मतुला- अहिंसक जीवन का रक्षाकवच ( तावीज़ )
यदि हम हिंसा के गति-विज्ञान से परिचित हैं तो हमें यह समझते देर नहीं लगेगी कि हिंसा के कारण हमारा संसार नर्क बन गया। हिंसा एक ऐसी मानसिक ग्रन्थि है
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