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आचाराङ्ग के कुछ महत्त्वपूर्ण सूत्र : एक विश्लेषण
जिसका मोह हम छोड़ नहीं पाते और हमारी मृत्यु का वह कारण बनती है
ऐस खलु गंथे एस खलु मोहे एस खलु मारे
एस खलु णरए (पृ० १०/२५) . जिसने हिंसा में निहित इस आतंक और अहित को देख लिया है, उसे हिंसा से निवृत्त होने में समय नहीं लगेगा। लेकिन यह 'देखना' कोरा बौद्धिक ज्ञान नहीं है। यह तो वस्तुत: एक आध्यात्मिक अनुभव है। जब तक कि हम अपने आप में अन्दर से इस बात को नहीं समझते, हम बाह्य जगत् में व्याप्त हिंसा को भी नहीं समझ सकते। महावीर कहते हैं, जो अध्यात्म को जानता है, बाह्य को जानता है। जो बाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है।
जे अज्झत्थं जाणइ, से बहिया जाणइ।
जे बहिया जाणइ, से अज्झत्थं जाणइ। (पृ० ४२/१४७) यही 'आत्मतुला' है। महावीर इसी आत्मतुला के अन्वेषण के लिए हमें आमन्त्रित करते हैं - एयं तुलमण्णेसिं (वही, १४८)।
आत्मतुला वस्तुत: सब जीवों के दुःख-सुख के अनुभव की समानता पर हमारा ध्यान आकृष्ट करती है। महावीर कहते हैं कि हमारी ही तरह सभी प्राणियों को आयुष्य प्रिय है। वे सुखास्वादन करना चाहते हैं। दुःख से घबराते हैं। उन्हें वध अप्रिय है, जीवन प्रिय है। वे जीवित रहना चाहते हैं
सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा। (८२/६३)
सव्वेसिं जीवियं पियं। (८४/६४) अन्दर ही अन्दर हम सब भी यही चाहते हैं। अत: महावीर कहते हैं कि तू बाह्य जगत् को अपनी आत्मा के समान देख – आयओ बहिया पास (१३४/५२)।
, यदि हम बाह्य जगत् को अपनी आत्मा के समान देख पाते हैं तो निश्चित ही हिंसा से विरत हो सकते हैं। महावीर ने अहिंसक जीवन जीने का हमें यह एक उत्तम रक्षा-कवच दिया है, जिससे मनुष्य न केवल स्वयं अपने को बल्कि समस्त प्राणी जगत् को हिंसा से बचाए रख सकता है। हमारी सारी कठिनाई यही है कि हम जिस तराजू से स्वयं को तौलते हैं, दूसरों को नहीं तौलते। दूसरों के लिए हम दूसरा तराजू इस्तेमाल
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