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श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९
कर सकेगा। वह धन एकत्रित करने के लिए स्वयं चोर और लुटेरा बन जाता है; किन्तु एक समय ऐसा भी आता है कि चोर और लुटेरे ही उसका धन छीन ले जाते हैं और इस प्रकार सुख का अर्थी वस्तुत: दुःख को प्राप्त होता है (८४/६९)। संसार की इस निःसारता को समझना ही 'क्षण' को पहचाना है।
___ अत: महावीर कहते हैं धैर्यवान पुरुषों को अवसर की समीक्षा करनी चाहिए और मुहूर्तभर भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। अंतरं च खलु इमं संपेहाए-धीरे मुहुत्तमवि णो पमायए (७२/११)। वस्तुत: जिस व्यक्ति ने क्षण को पहचान लिया है वह एक पल का भी विलम्ब किए बिना अपनी जन्म-मरण की स्थिति से मुक्ति के लिए प्रयास
आरम्भ कर ही देगा। कौशल इसी में है। इसीलिए महावीर कहते हैं – कुशल को प्रमाद से क्या प्रयोजन? अलं कुसलस्स पमाएणं (८८/९५) और वे निर्देश देते हैं कि उठो और प्रमाद न करो -- उठ्ठिए णो पमायए (१८२/२३)।
_ 'प्रमाद' किसे कहते हैं? प्रमाद न करने का क्या अर्थ है? जो पराक्रम करता है, प्रमाद नहीं करता। महावीर पराक्रम के लिए प्रेरित करते हैं, प्रमाद के लिए नहीं। महावीर के दर्शन में पराक्रम का अर्थ है - क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कषायों को शान्त कर देना, शब्द और रूप में आसक्ति न रखना तथा पूरी तरह अप्रमत्त हो जाना (देखें, ३३८/१५)। वैसे भी प्रमाद छ: प्रकार के बताए गए हैं - १. मद्य प्रमाद, २. निद्रा-प्रमाद, ३. विषय प्रमाद, ४. कषाय प्रमाद, ५. धुत-प्रमाद तथा ६. निरीक्षण (प्रतिलेखना) प्रमाद (स्थानांगसूत्र, ६/४४)। इन सभी प्रकार के प्रमादों से बचना ही पराक्रम है और यह पराक्रम व्यक्ति को स्वयं ही दिखाना है। इसके लिए उसे किसी अन्य से कोई सहायता प्राप्त होने वाली नहीं है।
अत: प्रमाद न करने का एक अर्थ यह भी है कि व्यक्ति अपनी मुक्ति के लिए स्वयं ही प्रयत्न करे। पुरुषार्थ और पराक्रम वस्तुत: मानव-प्रयत्न में है। जैनदर्शन ने किसी भी अतिप्राकृतिक और दैवी शक्ति, जिसे हम प्राय: 'ईश्वर' कहते हैं, में विश्वास नहीं किया है। मनुष्य अकेला आया है और अकेला ही जाएगा। उसे किसी अन्य सेईश्वर से भी- कोई सहायता प्राप्त होने वाली नहीं है। मनुष्य का एकमात्र मित्र मनुष्य स्वयं ही है। किसी मित्र या सहायक को अपने से बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं है। महावीर कहते हैं- पुरिसा! तुममेव तुमं मित्तं, किं बहिया मित्तमिच्छसि? (१३६/६२) अत: उठो और प्रमाद न करो! अनन्य और परम पद प्राप्त करने हेतु क्षणभर प्रमाद न करो- अणण्णपरमं नाणी, णो पमाए कयाइ वि (१३४/५६)।
जब तक कान सुनते हैं और आँखें देखती हैं, नाक सूंघ सकती है और जीभ रस प्राप्त कर सकती है, जब तक स्पर्श की अनुभूति अक्षुण्य है- इन नानारूप इन्द्रिय . ज्ञान के रहते पुरुष के लिए, यह अपने ही हित में है, कि वह सम्यक् अनुशीलन करे
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