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________________ २८ : श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९ विशाल संग्रह प्राकृत, अपभ्रंश एवं संस्कृत भाषा में निबद्ध हैं। इन सभी रचनाओं के विषय में हम भविष्य में कभी विस्तृत प्रकाश डालेंगे। अभी हाल तो श्री हरिपाल कृत प्राकृत वैद्यक की ही चर्चा इस निबन्ध में करेंगे। प्राकृत वैद्यक का रचना काल पौष सुदी अष्टमी सं० १३४१ तदनुसार १२८८ ए०डी० ई० है। जिस गुटके से यह कृति प्राप्त हुई है उसका विवरण प्रस्तुत है गुटके में कुल ४६४ पत्र हैं तथा पत्रों की लम्बाई २५ से०मी० चौड़ाई १६१ से०मी० है। प्रत्येक पत्र पर पंक्तियों की संख्या १५ है तथा प्रत्येक पंक्ति में अक्षरों की संख्या ३२-३३ है। गुटके की लिपि अति सुन्दर और अत्यधिक सुवाच्य है। काली और लाल स्याही का प्रयोग किया गया है। सबसे बड़ी विशेषता इसमें विराम चिह्नों के प्रयोग की है, जो हमने अभी तक अन्य पाण्डुलिपियों में नहीं देखी है, यद्यपि हमने हजारों पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण कर केट्लाग तैयार किये हैं जिनका एक भाग 'दिल्ली जिन ग्रन्थ रत्नावली' के नाम से प्रकाशित है शेष ७-८ भाग प्रकाशन के लिये तैयार है। विराम चिह्नों का प्रयोग इस गुटके की अति विशिष्टता है। इस गुटके के बीच में कुछ पत्र अत्यधिक जीर्ण-शीर्ण हो गए हैं। किसी तरह पानी में भीग जाने के कारण बहुत से पत्र आपस में चिपक गए हैं जिनको बड़ी सावधानी और परिश्रम से पृथक्-पृथक् करना ही होगा पर डर लगता है कि पत्र टूटकर फट न जावें। सबसे बड़ा दुःख इस बात का है कि इस गुटके के आदि और अन्तिम पत्र प्राप्त नहीं हैं। अन्तिम पत्र तो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है जिसमें लिपिकर्ता, लिपिकाल तथा प्रशस्तिवाचक सामग्री विद्यमान होती है। इस पत्र में ऐतिहासिक तथ्यों की जो जानकारी मिलती उससे हम वञ्चित रह गए हैं। यह हमलोगों की असावधानी और प्रमत्तता का ही परिणाम है। लिपिकार प्राकृत और पराकृत शब्दों के अन्तर से अनभिज्ञ रहा अत: उसने 'प्राकृत वैद्यक' को पराकृत वैद्यक लिख दिया है। प्राकृत वैद्यक नाम कृति गुटके की पत्र संख्या ३९१ से प्रारम्भ होकर पत्र संख्या ४०७ पर समाप्त होती है पर बीच में पत्र संख्या ४०१ पर पराकृत वैद्यक समाप्तम् लिखकर “णमिऊण वीयरायं .............' गाथा लिखकर योगनिधान वैद्यक नामक दूसरी रचना की सूचना देता है और १०८ गाथाएं लिखकर पुन: पराकृत वैद्यक समाप्तम् लिखता है जिससे विदित होता है कि प्राकृत वैद्यक केवल एक ही रचना हो और योगनिधान इसका दूसरा भाग हो? पर यदि योगनिधान को प्राकृत वैद्यक का भाग माना जाए तो फिर "णमिऊण वीयरायं .....” वाली मङ्गलाचरण स्वरूपी गाथा का उपयोग क्यों किया गया है? दूसरे मङ्गलाचरण में स्पष्ट विदित होता है कि योगनिधान एक स्वतन्त्र रचना है और प्राकृत वैद्यक एक स्वतन्त्र रचना है, यद्यपि योगनिधान में प्राकृत वैद्यक की भांति रचनाकार का नाम तथा रचनाकाल आदि का कोई उल्लेख नहीं है अत: हमें दोनों कृतियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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