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श्रमण
प्राकृत वैद्यक
( प्राकृत भाषा की आयुर्वेदीय अज्ञात जैन रचना)
ले
"नास्ति किञ्चिदनौषघमिह" के प्रवक्ता तक्षशिला विश्वविद्यालय के नव दीक्षित स्नातक जब गुरुदक्षिणा स्वरूप आशीर्वचन लाभार्थ गुरु जी के पास पहुंचे तो गुरु जी ने कहा कि तक्षशिला की चार कोस परिधि से कोई ऐसी वनस्पति ढूंढकर लाओ जो औषधि रूप में न प्रयुक्त होती हो । जिज्ञासु स्नातक छः माह तक तक्षशिला की परिधि में सारे वन प्रान्तर स्थित वनस्पति जगत् को टटोलता रहा तथा सूक्ष्म दृष्टि से अनुसन्धान भी करता रहा पर उसे एक भी पत्ती ऐसी न मिल सकी जिसका औषधि रूप में प्रयोग न होता हो ।
० कुन्दन लाल जैन
ऐसे विशाल और अगाध वैद्यक ज्ञान के भण्डार भारत ने विदेशों में अपनी गौरव गाथा गाई थी, भारत का आयुर्वेद, ज्योतिष और दर्शन के क्षेत्र में विश्व में शीर्षस्थ स्थान था। सिकन्दर महान् जब भारत से वापिस लौट रहा था तो अपने साथ भारतीय दार्शनिकों, भिषगों एवं ज्योतिषियों को अपने साथ यूनान ले गया था और वहां इनसे इन्हीं क्षेत्रों में शोध खोज और ज्ञान की वृद्धि करायी थी । अंग्रेजों के आने से पहले हमारा आयुर्वेद विज्ञान सर्वसम्मत और सर्वमान्य था पर विदेशियों की ऐलोपैथी ने हमारी धरोहर को आभाहीन कर दिया। भारतीय वाङ्गमय की श्रीवृद्धि में जैन सन्तों, आचार्यों एवं विद्वानों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। पूज्यपाद स्वामी और आचार्य समन्तभद्र जैसे महान् मनीषी इसके साक्षात् उदाहरण हैं। आयुर्वेद के क्षेत्र में भी इनकी महान् कृतियां उल्लेखनीय हैं। पर हमारी प्रमत्तता और अज्ञता के कारण आज वे सर्वथा अनुपलब्ध हैं पर उनकी शोध खोज नितान्त आवश्यक है।
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ऐसे ही एक अज्ञात आयुर्वेदज्ञ मनीषी श्री हरिपाल की दो कृतियां प्राकृत वैद्यक और योगनिधान शीर्षक से हमें एक बृहत्काय गुटके से प्राप्त हुई हैं। इस गुटके में लगभग ११८ छोटी-बड़ी, ज्ञात-अज्ञात, प्रकाशित-अप्रकाशित जैन रचनाओं का *. श्रुति कुटीर, ६८ विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली ११००३२
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