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________________ श्रमण / अप्रैल-जून १९९९ इस प्रकार प्रस्तुति की गई है। इस प्रस्तुतिकरण में कवि ने अपनी जिस मौलिक काव्य प्रतिभा एवं सारगर्भिता का परिचय दिया है, वह विलक्षण है, क्योंकि स्वास्थ्य सम्बन्धी, जो सिद्धान्त आयुर्वेदशास्त्र में जिस रूप में प्रतिपादित हैं उनमें से अधिकांश प्रस्तुत काव्य में प्रतिपादित किए गए हैं; किन्तु विशेषता यह है कि कवि ने अपने काव्य सौष्ठव एवं पदलालित्य के द्वारा विषय को अधिक सुरुचिपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है। २६ : आयुर्वेदीय स्वस्थवृत्त जैसे रूक्ष एवं गम्भीर विषय को अलङ्कारों की विविधता, रसों की प्रासंगिकता तथा छन्दों की सरस निबद्धता के साथ जिस प्रकार प्रस्तुत किया है उससे विषय की दुरूहता तो समाप्त हुई ही है उसकी रोचकता में अपेक्षित वृद्धि भी हुई है । ग्रन्थकर्ता की काव्य प्रतिभा का वैशिष्ट्य इसी से जाना जाता है कि यह गम्भीर और रूक्ष विषय को कितनी रोचकता एवं सरसता के साथ प्रस्तुत करता है। कविवर सोमदेव ने प्रस्तुत स्वस्थवृत्त प्रतिपादन में जाति, दृष्टान्त, समन्वय, हेतु, दीपक, उपमा, रूपक, आक्षेप, क्रियाक्षेप, क्रियादीपक, प्रदीपक, यथासंख्य, अतिशय आदि अलङ्कारों का आधार लेकर ग्रन्थ के काव्य सौन्दर्य में निश्चय ही वृद्धि की है। इसी प्रकार छन्दों में अनुष्टुप, इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवजा मालिनी, वसन्ततिलका, शार्दूलविक्रीडित, वंशस्थ आदि के द्वारा न केवल लालित्य और सरसता को द्विगुणित किया है, अपितु काव्य और काव्य में प्रतिपादित विषय को सजीव बनाने के प्रयास में प्राण संचार ही मानो किया है। इस प्रकार काव्य प्रवण ग्रन्थकर्ता ने रस, छन्द और अलङ्कार की त्रिवेणी प्रवाहित कर जिस अद्भुत काव्य कला-कौशल का परिचय दिया है वह अपने आपमें अद्वितीय है। प्रस्तुत काव्य में आयुर्वेद की दृष्टि से विषय प्रतिपादन और काव्य की दृष्टि से छन्द, अलङ्कार आदि का प्रयोग इन दोनों का मेल उनके पाण्डित्य, मर्मज्ञता एवं रसज्ञता के अद्भुत सामञ्जस्य का सङ्केत करता है, जो विरले ही व्यक्ति में पाया जाता है। इन सभी दृष्टियों से यह कहा जा सकता है कि यशस्तिलक चम्पू एक ऐसा सरस एवं मनोहारी काव्य ग्रन्थ है जिसमें आयुर्वेदीय स्वस्थवृत्त का प्रतिपादन अत्यन्त व्यवस्थित ढंग से किया गया है, जो ग्रन्थ की मौलिक विशेषता है। निश्चय ही स्वस्थवृत्त जैसे विषय को काव्य रूप प्रदान कर ग्रन्थकार ने आयुर्वेद के प्रति अपना अद्वितीय योगदान किया है। इससे एक ओर जहाँ आयुर्वेद को गौरव प्राप्त हुआ है वहीं दूसरी ओर जैनाचार्यों की आयुर्वेदज्ञता प्रमाणित हुई है । प्रस्तुत काव्य ग्रन्थ में विविध विषयों का प्रामाणिक वर्णन कर आचार्य सोमदेवसूरि ने अपने बुद्धि वैशिष्ट्य एवं बहुश्रुतता को निश्चय ही प्रमाणित किया है। I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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