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________________ प्राकृत वैद्यक (प्राकृत भाषा की आयुर्वेदीय अज्ञात जैन रचना) : २९ पर दो भिन्न-भिन्न निबन्ध लिखने पड़ रहे हैं। इन दोनों कृतियों की विशेषता है कि ये प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं और रचनाकार जैन है और दिगम्बरी है और विषय तो आयुर्वेद से सम्बन्धित है ही। प्रमाणस्वरूप दोनों रचनाओं के दोनों मङ्गलाचरण हैं जिसमें जिनेन्द्र भगवानरूपी वैद्य को प्रणाम किया गया है। णमिऊण जिणो बिज्जो भवभमणे वाहि फेऊण स मत्थो पुणु विज्जयं पयासमि जं भणियं पुव्व सूरीहिं।।१।। योगनिधान का मङ्गलाचरण निम्न प्रकार है जिसमें वीतराग प्रभु की वन्दना की गयी है - णमिऊण वीयरायं जोयविसुद्धं तिलोयउद्धरणे। जोयनिहाणं सारं वज्जरिमो मे समासेण।।१।। प्राकृत वैद्यक में कुल २५७ गाथाएं हैं तथा योगनिधान में कुल १०८ गाथाएं हैं। पर प्राकृत वैद्यक में योगनिधान की भांति अध्यायों का वर्गीकरण नहीं है। इसमें तो विभिन्न रोगों के उपशमन हेतु विभिन्न औषधियों के प्रयोग ही निबद्ध हैं। अपना नामोल्लेख करते हुए कृतियों को गाथाबद्ध रचने हेतु कवि ने निम्न गाथा दी है - गाहाबंधो विरयमि देहीणं रोयणासणं परमं। हरिवालो जं बुल्लई तं सिज्झइ गुरू पसायणं।।२।। रचना की समाप्ति करते हए कवि अपनी अज्ञता और मन्दबुद्धि के लिए बुद्धिमत्तों से क्षमायाचना करते हुए विनय प्रकट करता है तथा अपने कर्तृत्व को प्रस्तुत करता है। हरिवालेणय रयियं पुव्य विज्जोहिं जं जिणिद्दिटुं। बुहयण तं महु खमियह हीणहियो जं जि कव्वोय।। २५६।। इस कृति के रचनाकाल को प्रस्तुत करते हुए कवि निम्न गाथा लिखता है - विक्कम णरवइकाले तेरसय गयाई एयताले। (१३४१) सिय पोसट्ठमि मंदो विजय सत्थो य पुण्णोया।। २५७।। इति पराकृत (प्राकृत) वैद्यकं समाप्तम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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