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________________ १८० : श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९ और सम्यक् चारित्र का अवलम्ब प्राप्त करके ही मूक-माटी रूपी मुमुक्षु जीव परिपक्व कुम्भ का स्वरूप धारण कर शिवानन्द के मार्ग पर चल सकता है। दोनों ही प्रबन्ध काव्यों में कथावृत्त अत्यन्त सूक्ष्म है जिसे जिज्ञासु पाठक पढ़ कर आनन्दित हो सकते हैं। आचार्यश्री के प्रवचनों का विशाल संग्रह ज्ञान-विज्ञान की अनेक जानकारियों से परिपूर्ण है। आपश्री बहुभाषाविद् ही नहीं बल्कि उनके सशक्त रचनाकार भी हैं जैसेबंगला, कन्नड़, संस्कृत, अंग्रेजी आदि कई भाषाओं में उन्होंने मौलिक रचनाएँ की हैं। बंगला में लिखी हुई आपकी कविता की दो पंक्तियाँ उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं - "अर्थ इ अनर्थेर मूल। ताहार त्याग परमार्थोर चूल ताइ सुजनेरजन्य। शेसदा धूल'' कनड़ में आपने पर्याप्त मौलिक साहित्य रचा है। इसी प्रकार अंग्रेजी की एक कविता My Self द्वारा इनके आंग्ल भाषा में काव्य सृजन की क्षमता का अनुमान लगाया जा सकता है। आपने अनेक भाषाओं की श्रेष्ठ रचनाओं का प्रचुर मात्रा में रूपान्तरण भी किया है। मूक-माटी के मुक्त छन्द में वर्णित प्रकृति के एक सुन्दर चित्र की कुछ . पंक्तियाँ प्रस्तुत है "लज्जा के पूंघट में, डूबती सी कुमुदनी, प्रभाकर के कर छुवन से, बचना चाहती है वह, अपने पराग को, सराग मुद्रा को, पंखुरियों की ओट देती है।" ग्रन्थ के प्रणेता प्रो० विमलकुमार जैन ने इसके परिशिष्ट में हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत और अंग्रेजी के २३८ ग्रन्थों की सूची देकर बड़ा ही महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उन्होंने प्रसंगत: आचार्यश्री के भाषा, छन्द, काव्यशास्त्र और काव्यरूपों के परिनिष्ठित प्रयोग का उपयोगी परिचय देकर पाठकों का बड़ा उपकार किया है। ऐसे विशिष्ट ग्रन्थ का प्रणयन करके प्रो० जैन ने न केवल जैन समाज का प्रत्युत बृहद्त्तर हिन्दीभाषी पाठकों का बड़ा उपकार किया है। ग्रन्थ के अन्त में देश के ३० विद्वानों की सम्मतियां हैं जिनमें प्रभाकर माचवे, विजयेन्द्र स्नातक, लक्ष्मीचन्द्र जैन, नेमिचन्द जैन, श्री शेख अब्दुल वहाव, पद्मश्री लक्ष्मीनारायण दुबे और डॉ० राममूर्ति त्रिपाठी जैसे विद्वानों ने आचार्यश्री के व्यक्तित्त्व और कृतित्त्व की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इस विशिष्ट ग्रन्थ द्वारा पुस्तक प्रणेता ने आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के महान् व्यक्तित्व और विशाल कृतित्त्व का परिचय देकर हिन्दी पाठकों का उपकार किया है, एतदर्थ वे बधाई के पात्र हैं। वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा, लेखक - डॉ० श्रीरंजनसूरिदेव। प्रकाशक - प्राकृत जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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