SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साहित्य-सत्कार : १७९ दीक्षा देकर विद्यासागर नाम रखा और २२ नवम्बर १९७२ को नसीराबाद में इन्हें आचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया। आपकी मातृभाषा कन्नड़ थी, परन्तु आपने राष्ट्रभाषा हिन्दी को अपनी रचनाओं द्वारा समृद्ध किया। आप हिन्दी के अलावा बंगला, संस्कृत, प्राकृत और अंग्रेजी भाषा के न केवल अच्छे जानकार बल्कि उत्तम रचनाकार भी हैं। आपकी रचनाओं का शुभारम्भ गुरु-वन्दना से हुआ और आपने अपने आम्नाय के गुरुजनों की स्तुति में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज की स्तुति, आचार्यश्री वीरसागर, आचार्यश्री शिवसागर तथा आचार्यश्री ज्ञानसागर जी की स्तुतियां रचीं। १ जून १९७३ को आचार्यश्री ज्ञानसागर जी का देहावसान हुआ और इसी वर्ष के चातुर्मास (व्यावर) में आचार्यश्रीज्ञानसागरस्तुति की रचना की। उसी समय निजानुभवशतक (हिन्दी का प्रथम शतक) रचा गया। संस्कृत में आपकी प्रथम रचना शारदास्तुति (१९७१) है। स्तुतियों का अलावत आपने इष्टोपदेश, समाधितन्त्र, कल्याणमन्दिरस्तोत्र, एकीभावस्तोत्र और योगसार का हिन्दी पद्यानुवाद किया। फिर श्रमणशतकम् (संस्कृत का प्रथम शतक) के पश्चात् भावनाशतकम् तथा उनके हिन्दी पद्यानुवाद आपने स्वयं किये। समणसुत्तं का हिन्दी पद्यानुवाद आपने वसन्ततिलका छन्द में जैनगीता नाम से १९७५ में किया। आपने कुन्दकुन्द के समयसार का हिन्दी पद्यानुवाद कुन्दकुन्द का कुन्दन के नाम से १९७७ में किया। १९८० में स्वयम्भूस्तोत्र का हिन्दी अनुवाद समन्तभद्र की भद्रता के नाम से किया। नर्मदा का नरमकंकर की रचना अतुकान्त छन्द में की गयी है। डूबो मत- डुबकी लगाओ नामक काव्य ग्रन्थ का अतुकान्त छन्द में प्रथम बार १९८४ में प्रकाशन हुआ। तोता क्यों रोता भी अतुकान्त रचना है। आपका रचना संसार विशाल है जिसमें १४ काव्य ग्रन्थ प्रकाशित हैं। २५ अन्य संस्कृत और हिन्दी आदि की रचनायें भी उपलब्ध हैं; किन्तु इनमें इनकी सर्वश्रेष्ठ कृति मूकमाटी नामक रचना है जो अप्रैल १९८४ में प्रारम्भ होकर १९८७ में पूर्ण हुई। विद्वानों की मान्यता है कि आधुनिक युग में कामायनी ही एक ऐसी कृति है जिसके साथ मूक-माटी की महाकाव्यात्मक और रहस्यात्मकता की दृष्टि से समीक्षात्मक तुलना की जा सकती है। जिस प्रकार कामायनी रहस्यात्मक है उसी प्रकार मूक-माटी भी है। कामायनी का नायक मनु ध्वस्तदेवजाति का बचा प्रतीक है जो श्रद्धा का सम्बल ग्रहण कर नई सृष्टि का निर्माण करता है। मूक-माटी की नायिका माटी (आत्मा) भव भवान्तरों और विभाओं से पददलित है और अपने अभ्युदय के लिये अपनी माता धरतीरूपी अन्तस्चेतना से प्रबुद्ध आस्था अपनाने का सन्देश प्राप्त करती है। कामायनी का मनु आगे चलकर श्रद्धा का त्याग कर इडा (बुद्धि का प्रतीक) के पास जाता है किन्तु वहां भी उसके साथ वह बौद्धिक व्यभिचार कर बैठता है। वैसे ही जैनदर्शन के अनुसार मूक-माटी सन्देश देती है कि सम्यक् दर्शन के बिना सम्यक् ज्ञान नहीं होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy