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साहित्य-सत्कार
: १८१
वैशाली; प्रथम संस्करण सन् १९९३ ई०; आकार-रायल अठपेजी; पृष्ठसंख्या ६३१, मूल्य रु० २५०/
वसुदेवहिण्डी का तात्पर्य है - हरिवंश के शलाकापुरुष वसुदेव (वासुदेव के पिता) का हिण्डन अर्थात् घूमना-फिरना, यात्रायें करना। इस बृहत्कथा में गद्य की अत्यन्त ज्ञानवर्द्धक विधा ‘यात्रा वर्णन' और दूसरी अति लोकप्रिय मनोरंजक विधा ‘कथा आख्यायिका' का अनूठा मणिकांचन योग होने के कारण यह समग्र प्राकृत कथा साहित्य की विशिष्ट रचना बन गई है। इस कथा के लेखक जैनाचार्य संघदास का समय तीसरी से छठी शती के बीच माना जाता है। आल्सडोर्फ ने अपनी पुस्तक अपभ्रंश स्टडियन (सन् १९३७ लिपजिंग) में बताया है कि इस धर्मकथा पर गुणाढ्य कृत पैशाची की प्रसिद्ध कृति वड्डकहा का पर्याप्त प्रभाव है। यह एक प्रकार से वडकहा का जैन रूपान्तरण है। इसमें प्रसंगवश या दृष्टान्त रूप में अनेक कथायें, उपकथायें जैसे रामकथा, कृष्णकथा तथा अनेक अन्य पौराणिक कथायें, आख्यान, लोककथायें और . पशुकथायें इस प्रकार प्रमुख कथासूत्र में गूथी गई हैं जैसे किसी हार में नाना रत्न जटित किये गये हों।
__ आज अपनी विस्तृत और दुर्गम यात्राओं के लिए जैसे महापण्डित राहुल सांकृत्यायन प्रसिद्ध हैं उसी प्रकार वसुदेव भी महान यायावर थे और वे देश के जिन भागों में यात्रा करते गये उनके यात्रा के उन प्रदेशों के जनजीवन, लोकाचार, संस्कृतिखानपान, रहन-सहन का बड़ा जीवन्त चित्रण इस बृहद् ग्रन्थ में धर्मदास-संघदास गणि ने किया है। यह रचना प्राकृत गद्य में लिखी गई है, इससे ज्ञात होता है कि प्राकृत में उस समय (तीसरी-चौथी शती) गद्यबद्ध कथा-आख्यायिका लेखन का चलन अवश्य रहा होगा। इस गद्य रचना में महान् यायावर वसुदेव के प्रवास की मुख्य कथा को अनेक उपकथाओं के साथ मनोहारी ढंग से प्रस्तुत किया गया है। डॉ० जैकोबी का अनुमान है कि इस कथा का परवर्ती जैन कथा-साहित्य पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। कलिकालसर्वज्ञ जैनाचार्य हेमचन्द्र की प्रसिद्ध कृति त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित का वे इसे प्रमुख स्रोत बताते हैं। डॉ० श्रीरंजनसूरिदेव ने इसी प्रसिद्ध ग्रन्थ का विशद् अध्ययन इस शोधप्रधान ग्रन्थ के पाँच अध्यायों में किया है। विद्वान् लेखक ने उक्त ग्रन्थ का सम्यक् विवेचन करके उसके महत्त्व पर विशद् प्रकाश डाला है।
इसके विभिन्न अध्यायों में जैन परम्परा की रूढ़ कथाओं जैसे सृष्टि प्रक्रिया, हरिवंशोत्पत्ति, कोटिशिलोत्पत्ति, अष्टापदतीर्थोत्पत्ति के साथ भारतीय विद्या, कला, उनके सिद्धान्त और प्रयोग, ज्योतिष, आयुर्वेद, धनुर्वेद, वास्तुशास्त्र, कामशास्त्र और रमणीय कलाओं आदि का विशद विवेचन लेखक ने किया है। ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में वसुदेवहिण्डी के स्रोत और स्वरूप पर, तथा गुणाढ्य की वड्डकहा के प्रकाश में
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