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________________ श्रमण आधुनिक सन्दर्भों में तीर्थङ्कर - उपदेशों की प्रासङ्गिकता अनिल कुमा अनादि एवं अनन्त ब्रह्माण्ड की रचना - प्रक्रिया एवं उसके प्रपञ्च के व्यामोह से ग्रस्त समग्र प्राणियों की सर्वाङ्गीण उन्नति हेतु, जीवन-दर्शन की संवेदनशीलता के साथ-साथ धार्मिक आचरणों के संज्ञापन के निमित्त विश्व के अनेक धार्मिक, दार्शनिक निकायों में विस्तृत एवं गूढ़ चिन्तन किया गया है। यह चिन्तन अन्यान्य धर्मों की तरह भगवान् ऋषभ से लेकर भगवान् महावीर तक की सुदीर्घ परम्परा वाले जैन धर्म में भी समान रूप से अनुप्राणित हो रहा है। जैनधर्म भारतीय संस्कृति की प्रवृत्तिमार्गी और निवृत्तिमार्गी धाराओं में से उत्तरवर्ती धारा की श्रमण परम्परा का प्रतिनिधित्व करता है। जबकि हिन्दू धर्म के वैदिक स्वरूप को प्रवृत्तिमार्गी माना जाता है। जैनधर्म की भाँति बौद्ध धर्म भी निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा का ही प्रतिनिधि है। श्रमण परम्परा का मुख्य ध्येय सांसारिक जीवन की दुःखमयता पर बल देकर वैराग्यपूर्वक तप एवं संयम को अपनाकर मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य बनाना है। वस्तुतः तप एवं योग की आध्यात्मिक साधना एवं शीलों एवं व्रतों के रूप में नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा सामान्य रूप से इस परम्परा के धर्मों एवं विशेष रूप से जैनधर्म का भारतीय संस्कृति को विशिष्ट अवदान है। यहाँ उल्लेख करना अप्रासङ्गिक नहीं होगा कि श्रमण परम्परा में केवल जैन और बौद्ध धर्म ही सम्मिलित नहीं हैं। जैन विद्या के शीर्षस्थ विद्वान् प्रो० सागरमल जैन के अनुसार औपनिषदिक एवं सांख्ययोग की धारायें भी इस परम्परा में सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त आजीविक आदि कुछ अन्य धारायें भी थीं जो आज लुप्त हो चुकी हैं। जैन परम्परा में चौबीस तीर्थङ्करों की मान्यता आज सर्वमान्य हो चुकी है। इसके आदि पुरुष ऋषभ थे । भगवान् ऋषभ के अतिरिक्त अरिष्टनेमि, पार्श्व और महावीर को शोध छात्र, वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा। *. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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