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________________ आधुनिक सन्दर्भों में तीर्थङ्कर उपदेशों की प्रासङ्गिकता छोड़कर अन्य तीर्थङ्करों की ऐतिहासिकता के सम्बन्ध में साक्ष्य पूर्णत: मौन हैं। परवर्ती काल के आगम और अन्य कथा ग्रन्थ ही उनके विषय में विवरण प्रस्तुत करते हैं । प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभ के उपदेशों का सही एवं निश्चित स्वरूप निर्धारित कर पाना कठिन है, परन्तु इतना कहा जा सकता है कि ऋषभ संन्यास मार्ग के प्रवर्तक के रूप में ध्यान और तप पर अधिक बल देते थे। प्राचीन जैनागमों में मान्य उत्तराध्ययनसूत्र ? के केशि-गौतम संवाद से तीर्थङ्करों द्वारा प्रवर्तित धर्म के स्वरूप पर प्रकाश पड़ता है। इसके अनुसार भगवान् पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह का उपदेश दिया है जबकि अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् महावीर ने पञ्चशिक्षात्मक धर्म का उपदेश दिया है— अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य । उल्लेखनीय है कि जैन धर्म का परम लक्ष्य मोक्ष-ज्ञान, साधना और चारित्र रूप है और सभी धर्म प्रवर्तकों उपदेशों के मूल में लोक कल्याण के साथ चरम लक्ष्य की प्राप्ति ही एकमात्र उद्देश्य रहता है। वस्तुतः प्रत्येक धर्म और परम्परा की एक विशिष्ट जीवन दृष्टि होती है जिसके निर्माण में उसके प्रवर्तकों के वचन या उपदेश मूलमन्त्र या बीज का कार्य करते हैं । अथवा दूसरे शब्दों में तीर्थङ्करों के मूल मन्त्र के रूप में उपदिष्ट तत्त्वों को समझने के लिए उस धर्म विशेष की समग्र दृष्टि को जानना आवश्यक है। यहाँ यह भी ध्यातव्य है महापुरुषों की वाणी में यही विशेषता होती है कि उनकी प्रासङ्गिकता काल - बन्धन से परे है। वे सभी कालों और सभी परिस्थितियों में प्रासङ्गिक हैं, उपादेय हैं। उनके बताये मार्ग पर चलकर समाज युगों-युगों तक अपना अभ्युदय और कल्याण कर सकता है। देह I - जैन परम्परा में तीर्थङ्करों ने जो उपदेश दिया वह निवृत्तिमार्गी परम्परा का पोषक और प्रवृत्तिमार्गी परम्परा से भिन्न है । इन दोनों परम्पराओं के मूलभूत प्रदेयों की पृष्ठभूमि में ही तीर्थङ्करों के उपदेशों को भली-भाँति समझा जा सकता है। प्रो० सागरमलै जैन ने सारिणी के माध्यम से इसे अत्यन्त सुन्दर ढङ्ग से व्यक्त किया है— मनुष्य वासना 1 भोग अभ्युदय (प्रेम) स्वर्ग | कर्म Jain Education International : १५५ चेतना I विवेक विराग (त्याग) निःश्रेयस् I मोक्ष (निर्वाण) I संन्यास For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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