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________________ १०६ : श्रमण/अप्रैल-जून/१९९९ मोक्ष स्थान को प्राप्त करता है। जितने जीव मोक्ष प्राप्त करते हैं उतनी ही संख्या में जीव निगोद से जीवलोक में आ जाते हैं और इनका चक्र निरन्तर चलता रहा है। चूँकि निगोदों की संख्या अनन्त है, अत: यह लोक जीवों से कभी रिक्त नहीं हो सकता है। जीव के अलावा जो पाँच द्रव्य पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल हैं ये अजीव द्रव्य कहे गये हैं। इनमें पुद्गल मूर्तिमान् है, क्योंकि यह रूप आदि गुणों का धारक है और शेष चारों अमूर्त हैं। २० । __ इनमें पुद्गल द्रव्य - शब्द (भाषा), बन्ध (मृत्तिका) आदि के पिण्डरूप से जो घर, गृह, मोदक आदि पुद्गल बन्ध तथा जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न कर्म-नोकर्म रूपी बन्ध, सूक्ष्म (बेल की अपेक्षा बेर की सूक्ष्मता), स्थूल (बेर की अबपेक्षा बेल आदि का स्थूलत्व), समचतुरस्त्र, न्यग्रोध, सातिक, कुब्जवामन और हूंड - इन छ: प्रकार के संस्थान, गेहूँ आदि के चूर्ण तथा घी, खांड आदि रूप से अनेक प्रकार के भेद, दृष्टि को रोकने वाला अन्धकार (तम), वृक्ष, मनुष्य आदि के प्रतिबिम्बरूप होने वाली छाया, चन्द्रमा तथा खद्योत आदि में होने वाला उद्योत तथा सूर्य आदि से प्राप्त होने वाला आतप आदि पर्याय रूप हैं। २१ गति में सहायक द्रव्य धर्म कहलाता है, जैसे मछली के गमन में जल सहायक है। स्थिति सहित जीवों के स्थिति में सहकारी कारण अधर्म द्रव्य है। जैसे पथिकों की स्थिति में छाया सहायक होती है। २२ जीव आदि पाँच द्रव्यों को अवकाश देने वाला आकाश द्रव्य है। आकाश द्रव्य अनन्त-अनन्त विस्तार वाला है। २३ वह एक परमविस्तृत गतिरहित अचेतन द्रव्य है, जिसमें सभी प्रकार के रूप, रस, गन्ध, शब्द तथा स्पर्श का सर्वथा अभाव है। इस परम विस्तृत आकाश के केन्द्र में एक छोटे से क्षेत्र में नानाप्रकार के जीव तथा जड़ पदार्थों से भरा हुआ अनादि तथा अन्तरहित लोक है। २४ सर्वार्थसिद्धि में कहा गया है कि इस लोक में जितने विस्तृत, गति तथा स्थिति के सहायक धर्म एवम् अधर्म नाम के एक-एक द्रव्य इसमें समान रूप से स्थित हैं, काल नामक द्रव्य भी उसके प्रत्येक प्रदेश में स्थित है; किन्तु असंख्य स्कन्ध परमाण्वात्मक पुद्गल तथा अनन्त संख्यक जीवात्माएँ उसमें यत्र-तत्र बिखरी हुई हैं। जीव एवं पद्गल द्रव्यों को छोड़कर अन्य सब द्रव्य गतिशून्य (अचल) हैं। पौद्गलिक क्रियाओं तथा जीवात्माओं के संसर्ग के कारण पुद्गल तथा स्वकर्म के कारण जीवगण इस लोकाकाश में सर्वत्र भ्रमण करते हैं। २५ आकाश को दो भागों में विभक्त किया गया है -- लोकाकाश और अलोकाकाश। अलोकाकाश का क्षेत्र विस्तार अनन्त हैं। यहाँ धर्म, अधर्म आदि किसी जीव की उपस्थिति नहीं हो सकती है। सभी छः द्रव्य लोकाकाश तक ही सीमित होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525037
Book TitleSramana 1999 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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