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तपागच्छ विजयसंविग्न शाखा का इतिहास १२. पैंतालिसआगमपूजा १३. गुणसेनकेवलीरास १४. ध्यानगीता १५. अष्टप्रवचनमातासज्झाय १६. समवशरणस्तवनप्रकरणस्तवक १७. आणविकमुनिवरस्वाध्याय १८. जम्बूकुमारसज्झाय १९. नंदिसेणसज्झाय २०. रहनेमिराजीमतीसज्झाय २१. शालिभद्रस्वाध्याय
वि० सं० १९१० में रूपविजय गणि के निधन के पश्चात् कीर्तिविजय उनके पट्टधर हुए। ४५ वर्ष की आयु में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की। इन्होंने मारवाड़, मेवाड़ तथा गुजरात के विभिन्न भागों में विहार कर धर्मप्रभावना की। त्रिपुटी महाराज ने इनके १५ शिष्यों का उल्लेख किया है। इनके द्वारा रचित कोई कृति नहीं मिलती।
कीर्तिविजय के निधन के पश्चात् कस्तूरविजय गणि ने विजयसंविग्न शाखा का नायकत्व ग्रहण किया। इनके बारे में कोई विशेष-जानकारी नहीं मिलती। त्रिपुटी महाराज के अनुसार वि० सं० १८७० में इन्होंने दीक्षा ग्रहण की और बड़ौदा में स्वर्गवासी हुए२५। कस्तूरविजय गणि त्यागी प्रवृत्ति के मुनि थे। इनकी आरस (संगमरमर) की एक प्रतिमा कोठारी पोल, बडोदरा स्थित पार्श्वनाथ जिनालय में है। दूसरी प्रतिमा लुहार की पोल अहमदाबाद में प्रतिष्ठापित२६ है।
कस्तूरविजय के पट्टधर मणिविजय हुए । वि० सं० १८५२ में इनका जन्म हुआ था। वि० सं० १८७७ में इन्होंने कीर्तिविजय गणि के पास पाली में दीक्षा ग्रहण की। वि० सं० १८९२ में सौभाग्यविजय गणि ने इन्हें पंन्यास पद प्रदान किया। इनका शिष्य परिवार विशाल था। इनकी ख्याति अपने शिष्य परिवार में दादा के रूप में थी। दीक्षा के पश्चात् आजीवन इन्होंने दिन में एक समय आहार लिया। ये उग्रविहारी भी थे । इन्होंने कच्छ, गुजरात, काठियावाड़, मेवाड़, शत्रुजय, गिरनार, सम्मेतशिखर आदि की यात्रा की। इन्होंने कुछ मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया और जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा भी की। वि० सं० १९३५ में अहमदाबाद में इनका निधन हुआ। इनके शिष्यों के रूप में मुनि अमृतविजय, पद्मविजय, बुद्धिविजय, गुलाबविजय, हीरविजय, शुभविजय, सिद्धिविजय आदि का नाम मिलता है।
इनमें से बुद्धिविजय जी अपरनाम बूटेराय जी और उनके गुरुभ्राता