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तपागच्छ विजयसंविग्न शाखा का इतिहास
शिवप्रसाद
तपागच्छ से समय-समय पर अस्तित्त्व में आयी विभिन्न शाखाओं में विजय संविग्न शाखा का आज अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। आचार्य विजयदेव सूरि के शिष्य और पट्टधर विजयसिंह सूरि (जिनका अपने गुरु की विद्यमानता में ही निधन हो गया था) के शिष्य सत्यविजय गणि ने गच्छ में व्याप्त शिथिलाचार को दूर करने के लिये क्रियोद्धार कर संविग्नमार्ग प्रशस्त किया। इनकी शिष्य सन्तति विजयसंविग्न शाखा के नाम से जानी गयी। इस शाखा में कपूरविजय गणि, क्षमाविजय गणि, प्रसिद्ध रचनाकर जिनविजय गणि, उत्तमविजय गणि, पद्मविजय गणि, रूपविजय गणि तथा वर्तमान युग में आचार्य आत्मारामजी महाराज अपरनाम विजयानन्द सूरि, शास्त्रविशारद आचार्य विजयधर्म सूरि, इतिहासमहोदधि आचार्य विजयेन्द्र सूरि, अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के लेखक मुनि जयन्तविजय जी, मुनि विद्याविजयजी, मुनि चतुरविजय जी, आगमप्रभाकर मुनि पुण्यविजय जी, आचार्य विजयवल्लभ सूरि जी, आचार्य विजयप्रेम सूरि जी आदि अनेक प्रभावशाली और विद्वान् मुनिजन हो चुके हैं।
विजयसंविग्न शाखा के इतिहास के अध्ययन के लिये उपलब्ध साक्ष्यों में इस शाखा के मुनिजनों द्वारा रचित विभिन्न कृतियों की प्रशस्तियों तथा मुख्यरूप से एक पट्टावली जो वर्तमान युग में रची गयी प्रतीत होती है, का उल्लेख किया जा सकता है। इस पट्टावली का हिन्दी और गुजराती भाषा में लिखा गया सार प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त समग्र जैन चातुर्मास सूची से भी इस सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सूचना प्राप्त होती है। साम्प्रत आलेख में उक्त सभी साक्ष्यों विशेषकर उक्त पट्टावली के आधार पर तपागच्छ की इस शाखा के इतिहास की एक झलक प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है।
आचार्य विजयदेव सूरि के प्रशिष्य और विजयसिंह सूरि के शिष्य सत्यविजय गणि ने गच्छ में व्याप्त शिथिलाचार को दूर करने के लिये विजयदेव सूरि की निश्रा में वि० सं० १७११ माघ सुदि १३ गुरुवार को क्रियोद्धार कर संविज्ञमार्ग ग्रहण किया। विजयदेव सूरि के पट्टधर विजयप्रभ सूरि की परम्परा के शिष्यों से अपनी परम्परा के मुनिजनों की अलग पहचान बनाने के लिये इन्होंने उनके लिये पीले वस्त्रों * प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी ।