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________________ साहु सरणं पवज्जामि सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति सम्यग्दर्शन के द्वारा होती है। इसी सम्यग्दर्शन अथवा सद्श्रद्धा को हम गुरुवन्दना में 'वंदामि' (वन्दन, स्तुति करके), 'नमंसामि' (नमस्कारप्रतिष्ठा करके), 'सक्कारेमि' (सत्कार, आदर, श्रद्धा करके), 'सम्माणेमि' (सम्मान, बहुमान करके) आदि विनयबद्ध शब्दों से सद्गुरु के प्रति श्रद्धा अर्पित करते हैं। हार्दिक श्रद्धा-रहित वन्दन गुरु वन्दन न रहकर मात्र दिखावा रह जाता है । यह पंचाङ्ग (दो हाथ, दो पैर एवं मस्तक) दण्डवत् केवल द्रव्य वन्दन ही रह जाता है। इसमें भाव सहित विशुद्ध मन से श्रद्धा का अभाव है। सम्यग् श्रद्धा के बिना गुरु से सम्यग्ज्ञान प्राप्त करना दुष्कर है। जैन संस्कृति में आचार्य सद्गुरु वर्ग का उच्चतम पद है। श्रावक-श्राविकाओं द्वारा आचार्यों को अपने क्षेत्र में फरसने अथवा चातुर्मास फरमाने की भाव भीनी याचना - विनति करने की जैन धर्म में एक प्राचीन परम्परा, प्रथा रही है। वर्तमान में यातायात के द्रुतगामी एवं सुगम साधन प्राप्त होने से श्रावक-श्राविकाएँ अपने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने में सामूहिक रूप में स्वयं आचार्यश्री के समक्ष उपस्थित होकर यह भावसिक्त विनति प्रस्तुत करते हैं। इसके विपरीत उन्नीसवीं सदी में जब यातायात की इतनी सुलभ एवं द्रुतगामी सेवाएँ उपलब्ध नहीं थी तब यही विनति सन्देशवाहक द्वारा एक विशेष 'विनति - पत्रिका' आचार्य श्री को विशुद्ध भाव से श्रद्धापूर्वक उनका गुणगान करते हुए विशेष रूप से शब्दबद्ध की जाती थी। यही नहीं उस विनति - पत्रिका में आध्यात्मिक चित्रकारी, पद्यावली आदि का प्रयोग करते हुए उसे काफी लम्बा भी बना दिया जाता था। मेड़ता ( राजस्थान) के संघ प्रमुखों द्वारा तपागच्छ के आचार्य श्री विजयजिनेन्द्र सूरि जी को अहमदाबाद के निकट वीरमपुर नगर में संवत् १८६७ (१८१० ई०स० ) में भेजा गया विनति - पत्र ३२ फुट लम्बा था जिसमें १७ फुट लम्बी तो केवल चित्रकारी थी। इसी श्रृंखला में मैं यहाँ पर नागौर (राजस्थान) के लुंकागच्छीय मेड़ता के श्रीसंघ (प्रमुखतः सुराणा ) द्वारा जैसलमेर में विराजित आचार्य श्री को पौष वदि चतुर्दशी विक्रम संवत् १९३४ (१८७७ ई० स० ) में भेज गए 'विनति' का नीचे उद्धरण करता हूँ जो मुझे श्रीमान् भँवरलाल नाहटा, कलकत्ता के सौजन्य से प्राप्त हुआ है जिनका मैं हृदय से आभार प्रकट करता हूँ। उपसंहार में यथा गुरुदीपक गुरु चांदणों, गुरु बिन घोर अंधार । - सद्गुरु मैं नहीं बीसरूं, गुरु मुझ धर्म आधार ।। ||: ए र्द्र = ॥ ॐ नत्वा । स्वस्ति श्री आदिजिनं प्रणम्य रम्यमनसा श्रीमत तत्र श्री जेसलमेर महदुर्गे श्रीमच्चारित्रचूडामणीन् श्री जिनशासनमंडकान् दशविध समाचार्युपेतान श्री जिनाज्ञोररीकारकान् अमृतमयमहिमानिधानान् नरनारीसेवित पादारविंदान् ८०
SR No.525036
Book TitleSramana 1999 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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