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साहु सरणं पवज्जामि
डॉ० पानमल सुराणा
अनन्त उपकारी श्रमण भगवान् महावीर ने अपने निर्वाण से कुछ ही समय पूर्व पावापुरी के अंतिम समवसरण में उत्तराध्ययन सूत्र की देशना की थी। इसका शुभारम्भ सम्पूर्ण श्रमणाचार की नींव, अणगार की जीवन भूमिका - “विनय' से होता है। 'विनय' का क्षेत्र शिष्टाचार से प्रारम्भ होकर चतुर्विध संघ (साधु-साध्वी, श्रावकश्राविका) के सम्पूर्ण सदाचार की परिधि में परिव्याप्त है। गुरुजनों के समक्ष विनय एवं विवेकपूर्वक कैसे हलन-चलन करना, उनके अनुशासन की सीमा में रहकर किस प्रकार ज्ञानार्जन करना तथा सम्भाषण एवं वर्तन में विनय-विवेक रखते हए उसे जीवन व्यवहार में लाना ये सब विषय 'विनय' प्रकरण में ही सम्मिलित हैं। इसीलिए श्रमण भगवान् महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र में सर्वप्रथम 'विनय' को सर्वोपरि प्राथमिकता देते हुए साधक को जीवन में व्यवहार कुशल बनाने की देशना प्रदान की।
सभी तीर्थङ्कर अपने समय में 'धम्म-तित्थयरे'-धर्मतीर्थ के स्थापक रहे हैं। श्रमण भगवान् महावीर ने भी चतुर्विध संघ की स्थापना की थी। साधु-साध्वी और श्रावक-श्राविका ये दोनों वर्ग आध्यात्मिक जीवन में एक-दूसरे के पूरक समझे जाते रहे हैं। साधु-साध्वी तो निश्चयात्मक रूप से श्रावक-श्राविकाओं को धार्मिक मर्यादाओं में रखने के लिए सर्वथा संलग्न रहे हैं, वहीं पर धर्मनिष्ठ, ज्ञानी एवं व्रती श्रावकश्राविका भी श्रमणाचार की मर्यादा लांघने वाले साधु-साध्वी पक्ष पर अंकुश रखते हैं। फलस्वरूप चतुर्विध संघ में विकृतियों के आगमन पर रोक लगी रहती थी। इस प्रकार के सामूहिक अनुशासन के पीछे 'विनय' की प्रमुख भूमिका रही है। गुरुजनों का सम्मान सर्वोपरि रहा है।
आध्यात्मिक साधना में गुरु का पद सर्वदा उच्च रहा है - चाहे वह आचार्य हों, उपाध्याय हों अथवा सुसाधु ही हों - ये सभी गुरु पद में ही सम्मिलित हैं। गुरुदेव हमारी जीवन नौका के सुनाविक होने के फलस्वरूप संसार-समुद्र के काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि भयंकर आव? - भंवरजाल में से हमें सकुशल पार उतारने में सहायक होते हैं। वे हमारे अज्ञान अथवा मिथ्याज्ञान के आवरण को हटाकर सद्ज्ञान अथवा सम्यग्ज्ञान की ओर अग्रसर करते हैं। कहा भी है -
अज्ञानतिमिरान्धानां ज्ञानांजनशलाकया ।
चक्षुरुन्मिलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ।। * डी० शंग्रीला एपार्टमेन्ट, ६१ जतिनदास रोड, कलकत्ता-1,०००२९