SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन विद्या के विकास के हेतु रचनात्मक कार्यक्रम जैनत्व आपस में घुलमिलकर इतने एकाकार हो गए हैं कि आज का साधारण हिन्दू यह जानता भी नहीं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये जैन धर्म . के उपदेश थे, हिन्दू धर्म के नहीं।" सिद्धान्तों का नवीन प्रस्तुतीकरण आज हमें जैन धर्म के आत्मा, परमात्मा, कर्म, पुनर्जन्म इत्यादि सिद्धान्तों को नये रूप में प्रस्तुत करना होगा। क्रोध, मान, माया व लोभ आध्यात्मिक जीवन के लिए ही घातक नहीं हैं, व्यावहारिक जीवन में भी संकट उत्पन्न करते हैं। आज का नवयुवक पाप-पुण्य व स्वर्ग-नरक की बातों को नहीं समझता। उदाहरणार्थ रात्रि भोजन में पाप है, यह बात उसकी समझ में नहीं आती। किन्तु इसके स्थान पर चिकित्सकों की राय द्वारा यह समझाया जाय कि देर से भोजन करने पर विलम्ब होने से कब्ज आदि अनेक रोगों के शरीर में फैलने की सम्भावना रहती है। रात्रि में छोटे-२ जीवों के भोजन में गिरने से स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचता है। आज का नवयुवक धर्म क्रियाओं में भी रुचि नहीं रखता। अत: उसे ध्यान, स्वाध्याय, गीत और भजन द्वारा जैन अध्यात्म की ओर आकर्षित करना होगा। भगवान् महावीर ने नारी जाति को जो सम्मान दिया, वैसा अन्य किसी धर्म ने नहीं दिया। उनके शिष्यों में जितने श्रमण थे। उनसे अधिक श्रमणियां थीं। आज भी हमारी बहनें धर्म क्रियाओं में जितनी रुचि रखती हैं, भाई उतना नहीं रखते । इसी प्रकार भगवान् महावीर ने समाजिक समता की बात रखी कि जन्म से कोई ऊँचा और नीचा नहीं होता, कर्म से होता है। इस प्रकार उनके अहिंसा समतावाद, विचार-स्वातंत्र्य इत्यादि सिद्धान्तों द्वारा हम नवयुवक-नवयुवतियों को जैन विद्या की ओर आकर्षित कर सकते हैं। प्रत्येक परम्परा का सम्मान अब हमें धर्म के तत्त्वों को आंकड़ों व चार्टी द्वारा ऑडियो, वीडियो व कॉम्प्यूटर द्वारा प्रचारित करना होगा। मूल साहित्य की तटस्थ व्याख्याएं करनी होंगी जिससे कि गम्भीर सिद्धान्तों को सरलता से समझाया जा सके। टी० वी० व रेडियो पर भी जैन धर्म के बारे में सरल, बोधगम्य व वैज्ञानिक वार्ताएं प्रसारित करनी होंगी। न केवल सम्पूर्ण जैन समाज को संगठित रूप में कार्यक्रम आयोजित करने चाहिए बल्कि शान्ति, जीवदया, सदाचार व समता के क्षेत्र में कार्य करने वाले अन्य सभी समूहों को साथ लेकर काम करना होगा। जैसा कि पण्डित श्री सुखलाल जी ने लिखा है “प्रत्येक धर्म परम्परा को दूसरी धर्म परम्परा का उतना ही आदर करना चाहिए जितना वह अपने बारे में चाहती है। धार्मिक और सांस्कृतिक अध्ययन-अध्यापन की परम्परा को इतना विकसित करना चाहिए कि जिसमें किसी एक धर्म परम्परा का -
SR No.525036
Book TitleSramana 1999 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy