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बीसवीं सदी के धार्मिक आन्दोलन : एक समीक्षा संगोष्ठी का आयोजन किया गया था, जिसमें कोई अन्तिम निर्णय नहीं हो सका था। किन्तु बाद में पं० मक्खनलाल जी शास्त्री ने आचार्य शान्तिसागर जी महाराज को प्रेरित कर ताड़पत्रीय प्रतियों के आधार पर षटखण्डागम की जो ताम्रपत्र प्रति तैयार की गई उसके तेरानबेवें सूत्र को 'संजद' पद से रहित ही अंकन कराया। - इसके बाद भी इस विषय पर ऊहापोह चलता रहा और विद्वत्परिषद् की कार्यकारिणी ने 'संजद' पद के समावेश के पक्ष में प्रस्ताव पास कर अपनी सहमति व्यक्त की। अन्त में पूज्य शान्तिसागर जी महाराज ने दोनों पक्षों के प्रमाणों पर गहन विचार कर अपने पूर्व वक्तव्य को वापिस लिया और मराठी में अपने अभिमत को प्रकट करते हुये 'संजद' पद के समावेश की आवश्यकता पर बल दिया था। आचार्यश्री की इस घोषणा के साथ ही यह आन्दोलन समाप्त हो गया। नारी शिक्षाः
बीसवीं सदी के प्रारम्भ में जैन समाज में प्राय: शिक्षा का अभाव था। परुषवर्ग में जो थोड़े-बहत पढ़े-लिखे श्रीमन्त अथवा विद्वान थे, उन्हीं के हाथों में समाज की बागडोर थी। जैन समाज में व्याप्त अशिक्षा ही उनकी गरीबी का मूल कारण था। अत: इस दिशा में पूज्य गणेशप्रसाद जी वर्णी ने बुन्देलखण्ड में अनेक संस्कृत विद्यालयों एवं पाठशालाओं की स्थापना करके जैन समाज में शिक्षा का प्रचार-प्रसार किया। महाराष्ट्र में पूज्य मुनिश्री समन्तभद्र जी महाराज ने अनेक गुरुकुलों की स्थापना करके अविद्या के अन्धकार से जैन एवं जैनेतर समाज को उबारा।
इतना सब होते हये भी नारी शिक्षा की ओर किसी व्यक्ति का ध्यान नहीं गया। अत: माँश्री चन्दाबाई जी ने आरा (बिहार) में जैन बाला विश्राम और श्री महावीर जी (राज.) में ब्र० कमलाबाई जी ने महिला आश्रम की स्थापना करके नारी शिक्षा पर विशेष बल दिया है। बाल-विधवा बहिनों के घोर निराशामय जीवन में रोशनी फैलाने वाले इन शिक्षा आयतनों ने महिला समाज में एक नई जागृति पैदा की है। इससे दीन-हीन कही जाने वाली अनेक कन्याओं एवं विधवा बहिनों ने अध्ययन का आत्म-सम्मान तो प्राप्त किया ही है, साथ ही देश और समाज की सेवा कर अपने जीवन को सफल बनाया है। अत: नारी शिक्षा का यह आन्दोलन अपने कुछ उद्देश्यों की पूर्ति के कारण आंशिक रूप में सफल कहा जा सकता है। अन्य विविध आन्दोलन
उपर्युक्त के अतिरिक्त अन्य और भी अनेक आन्दोलन समय-समय पर जैन समाज में हुए हैं, जिनमें सामाजिक दृष्टि से दहेज प्रथा का उन्मूलन महत्त्वपूर्ण है। किन्तु दहेज प्रथा को समाप्त करने के लिये जितने भी सरकारी या सामाजिक नियम बने, वे सभी दहेजलोभियों और दहेजदाताओं की कमजोरी के कारण सफल नहीं हो