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श्रमण / जनवरी-मार्च / १९९९
अनेक पूज्य मुनिजन एवं पूज्या आर्यिकाएँ माता जी श्रावकों को शूद्रजल त्याग करने का उपदेश देते थे तथा आहार उन्हीं के हाथों से ग्रहण करते थे, जो शूद्रजल के त्यागी हों। अब भी कुछ मुनिसंघों में शूद्रजल का त्याग किये बिना श्रावक पूज्य मुनिराजों एवं आर्यिका माताओं को आहार देने की योग्यता नहीं रखते हैं। कभी शूद्रजल का त्याग कराने से जैन समाज को काफी क्षति उठानी पड़ी थी। जात-पांत के आधार से मनुष्य को छोटा समझने का सिद्धान्त न्याय के विरुद्ध तो था ही, जैनधर्म के विरुद्ध भी था तथा इसके कारण कई जगह जैनों का सामाजिक विरोध - बहिष्कार भी हुआ था इसलिये यह आत्म घातक भी था २५ ।
यद्यपि वर्तमान में भी कुछ श्रावक-श्राविकाएँ शूद्रजल के त्यागी हैं, किन्तु आज के महानगरों की सरकारी जल व्यवस्था को देखकर शूद्रजल का त्याग असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है । अतः व्यावहारिक कठिनाई और मानव-मानव के मध्य भेद रेखा खींचने वाला यह आन्दोलन स्वतः समाप्त हो रहा है।
धार्मिक ग्रन्थों / शास्त्रों का मुद्रण
बीसवीं सदी के प्रारम्भ में परम्परा के अनुसार हस्तलिखित शास्त्रों को ही गद्दी पर विराजमान कर प्रवचन किया जाता था, किन्तु युग बदला और ग्रन्थों का मुद्रण चालू हो गया। जब धार्मिक ग्रन्थों को मुद्रित कराने की बात उठी तो कुछ लोगों ने उसका विरोध किया। विरोध करने वालों में स्व० सेठ जम्बूप्रसाद जी सहारनपुर वाले प्रमुख थे। उनका मानना था कि शास्त्रों के मुद्रण से जिनवाणी माँ की अवज्ञा होगी। किन्तु देश - काल की बदली हुई परिस्थितियों में शास्त्रों का मुद्रण युगानुकूल होने से यह विरोध दब गया और शास्त्रों के मुद्रण से आज घर-घर में सर्वत्र जिनवाणी माँ के दर्शन होने लगे हैं तथा स्वाध्याय के प्रति लोगों की रुचि जागृत हुई है। 'संजद' पद का समावेशः
षट्खण्डागम के तेरानबेवें सूत्र में 'संजद' पद के समावेश को लेकर एक आन्दोलन चला था, जिसका सूत्रपात सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्द्र शास्त्री ने किया था। इस पर पं० मक्खनलाल जी न्यायालंकार का कहना था कि- यह सूत्र द्रव्य मार्गणा की अपेक्षा लिखा गया है, इसलिये इसमें 'संजद' पद नहीं होना चाहिए, क्योंकि आगम में द्रव्य मनुष्य-स्त्रियों के पांच ही गुणस्थान बतलाये गये हैं। जबकि पं० फूलचन्द्रजी शास्त्री का कहना था कि - सभी गुणस्थानों और सभी मार्गणाओं में जीवों के भेदों की ही प्ररूपणा आगम में दृष्टिगोचर होती है, इसलिये इस सूत्र में भाववेद की अपेक्षा मनुष्य स्त्रियों के सन्दर्भ में ही गुणस्थानों की प्ररूपणा की गई है। इसलिये इस सूत्र में 'संजद' पद अवश्य होना चाहिये २६ ।
इस विषय पर विस्तार से चर्चा करने के लिये बम्बई में एक त्रिदिवसीय
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