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बीसवीं सदी के धार्मिक आन्दोलन : एक समीक्षा कासलीवाल एवं पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने किया था तथा बीसा पक्ष की ओर से पं० पन्नालाल जी न्यायदिवाकर और हकीम कल्याणराय जी ने पतित जाति के लिये पूजाधिकार का निषेध किया था।
गुरु गोपालदास जी बरैया ने दस्सा पूजाधिकार के पक्ष में स्पष्ट रूप से कहा कि दस्सों को भी उसी तरह भगवान् जिनेन्द्र की पूजा करने का अधिकार है जिस तरह बीसा कहलाने वाले लोगों को२०। उनकी दलील थी कि - दस्सा कहलाने वाले लोग अपनी पाँचवी अथवा सातवीं पीढ़ी में शद्ध हो जाते हैं। यदि हजारों या लाखों वर्षों में भी उनकी शुद्धि नहीं माना जाये तो यह आरोप तीर्थंकरों तक पहुंच जायेगा क्योंकि उत्सर्पिणी में जो तीर्थंकर पैदा होते हैं उनकी परम्परा उत्सर्पिणी सभा के प्रथम काल से प्रारम्भ होती है। उत्सर्पिणी सभा के प्रथम काल में सब लोग आचार-भ्रष्ट होते हैं और उनकी ही परम्परा में तीर्थंकरों की उत्पत्ति होती है। पण्डितजी की इस दलील का विरोधियों के पास कोई उत्तर नहीं था, फिर भी उन्होंने उनके विरुद्ध भोले लोगों को यह कहकर बहकाया कि पण्डित गोपालदास जी तीर्थंकरों को व्यभिचारी की सन्तान बतलाते हैं। वैसे दस्सा पूजाधिकार के प्रबल विरोधी पं० पन्नालाल जी न्यायदिवाकर ने स्वयं स्वीकार किया है कि मैं दस्सों के पूजाधिकार के खिलाफ नहीं हूँ, किन्तु परम्परा का समर्थन करना पड़ता है और शास्त्रों में भी कहीं भी दस्सा-बीसा का उल्लेख ही नहीं है।३।।
न्यायालय ने परम्परा को आधार मानकर यद्यपि दस्सा पूजाधिकार के विरोध में अपना निर्णय दिया, किन्तु पण्डित बरैया जी के तर्क शास्त्रानुमोदित होने के कारण आज भी मील के पत्थर साबित होते हैं और वर्तमान में तो गुरु गोपालदास जी के विचारों का ही क्रियान्वयन हो रहा है।
दस्सा पूजाधिकार आन्दोलन पर टिप्पणी करते हये पण्डित चैनसख दास जी ने लिखा है कि - 'जो व्यभिचार करता है उसे किसी भी प्रकार का दण्ड नहीं, किन्तु जो व्यभिचार से उत्पन्न होता है उसे दस्सा कहकर यह नृशंस दण्ड दिया जाता है, जिसका कि वस्तुत: कोई अपराध ही नहीं है। यह दण्ड व्यवस्था न तो तर्कसंगत है, न मनोवैज्ञानिक और न आगम सम्मत२४।' आदरणीय पण्डितजी के ये विचार बुद्धिजीवियों को एक दिशा निर्देश देते हैं।
वस्तुत: परम्परा मानव-निर्मित होती है अथवा कभी-कभी स्वत: बन जाती है, किन्तु धार्मिक सिद्धान्त देश-कालातीत होते हैं, उनमें रागद्वेष की गन्ध नहीं होती है। अत: वे ही सार्वजनिक और सर्वमान्य हैं। शूद्रजल त्याग
कभी शूद्रजल के त्याग का आन्दोलन जैन समाज में मुखरित हुआ था।