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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९
और धार्मिक तर्क उपस्थित करने पर भी विधवा-विवाह आन्दोलन सफल नहीं हो सका। हाँ! अपवाद स्वरूप कुछ विधवा-विवाह हुए हैं, किन्तु इन्हें समाज का खुला समर्थन नहीं मिल सका और वे समाज में आदृत भी नहीं हुये। साथ ही विधवा-विवाह आन्दोलन से पूर्व की व्यवस्था के ही ये अंग थे, जिन्हें आन्दोलन के कारण कुछ हवा मिली थी और समाज का रुख कुछ नरम हो गया था तथा सामाजिक कठोर दण्ड से वे बच गये। विजातीय विवाहः
बीसवीं सदी के तृतीय दशक में दिगम्बर जैन समाज में व्याप्त जाति-बन्धन को तोड़ने और परस्पर में रोटी-बेटी के व्यवहार को स्थापित करने के लिये पं० दरबारीलाल ‘सत्यभक्त' ने विजातीय विवाह के समर्थन में एक आन्दोलन चलाया था, जिसके समर्थन में उन्होंने सौ से अधिक लेख लिखे थे। 'विजातीय विवाह मीमांसा' नाम से एक ट्रैक्ट भी दिल्ली के जौहरीमलजी सर्राफ ने छपवाया था।१६ स्वामी सत्यभक्त जी के अनुसार यह आदोलन पूरी तरह सफल रहा। बहत से विरोधी पण्डितों के विचार भी बदल गये और व्यवहार में भी यह आन्दोलन काफी सफल हुआ। दक्षिणी मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में दर्जनों की संख्या में जाति-पांति तोड़कर विवाह हुये और कुछ अल्पसंख्यक जातियाँ तो एक तरह से आपस में मिल ही गई।
गुणों की पूजा को महत्त्व देने वाले जैनधर्म में वस्तुत: जातिवाद का धार्मिक दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं है। अत: सम्प्रति विभित्र उपजातियों के लोगों ने धर्म को प्रमुख मानकर परस्पर में रोटी-बेटी का व्यवहार प्रारम्भ कर दिया है, जो सामाजिक एकता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि पिण्डशुद्धि के नाम पर कुछ लोगों द्वारा विजातीय विवाह का निषेध अब भी किया जाता है, किन्तु अब यह विरोध सामान्य श्रावकों में नगण्य है तथा विजातीय विवाह बे-रोकटोक हो रहे हैं। दस्सा पूजाधिकार
बीसवीं सदी के प्रथम दशक में सन् १९०९ में हस्तिनापुर में मेले के अवसर पर दस्सा पूजाधिकार को लेकर एक आन्दोलन हुआ था, जिससे सरधना और खतौली के दस्सा अग्रवाल जैन प्राचीन दस्तूर और धार्मिक रिवाज के विरुद्ध नई बात अर्थात् जिनेन्द्रमूर्ति का प्रक्षाल-पूजन करना चाहते थे, किन्तु अग्रवाल बिरादरी की आम पंचायत से यह निश्चित हआ कि प्राचीन दस्तुर और रिवाज के विरुद्ध दस्सा जाति वाले नया दस्तूर नहीं चला सकते, यानी पूजा प्रक्षाल नहीं कर सकते हैं। पंचायत के इस निणर्य से असन्तुष्ट लोगों ने अपने पूजा के अधिकार को प्राप्त करने हेतु न्यायालय की शरण ली। दस्सा पूजाधिकार का समर्थन पं० गोपालदास जी बरैया, पं० धन्नालाल जी
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