SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बीसवीं सदी के धार्मिक आन्दोलन : एक समीक्षा विधवा-विवाह का समर्थन दो प्रकार से किया जाता था। कुछ लोग विधवाविवाह को जैनधर्म के विरुद्ध मानकर भी समय की जरूरत के नाम से आपद्धर्म के रूप में चलाना चाहते थे। जबकि पं० दरबारी लाल जी 'सत्यभक्त' जैसे लोगों का विचार था कि - 'विधवा-विवाह जैनधर्म का अंग है। विधवा-विवाह के रिवाज के बिना जैनधर्म का ब्रह्मचर्याणुव्रत अधूरा है । ब्रह्मचर्याणुव्रत का मतलब है कि मनुष्य की उद्याम काम-वासना एक पुरुष या एक नारी में सीमित हो जाये। यह कार्य विधवा-विवाह से भी होता है । विधवा को काम-वासना सीमित करने की जरूरत है, जो कि विवाह से ही सम्भव है, इसलिये विधवा-विवाह ब्रह्मचर्याणुव्रत का पूरक है११।' इसके समर्थन में आगे उनका कहना है कि इसी प्रकार कोई पुरुष यदि किसी विधवा के साथ विवाह करके अपनी काम वासना को सीमित कर लेता है तो उसका यह विवाह भी ब्रह्मचर्याणुव्रत का सहायक बन जाता है। इस प्रकार दोनों के लिये विधवा-विवाह ब्रह्मचर्याणुव्रत का अंग है और ब्रह्मचर्याणुव्रत तो जैनधर्म का मूल व्रत है । इसलिये विधवा-विवाह भी मूलव्रत में सहायक बना १२ । ये विचार पं० दरबारी लाल जी 'सत्यभक्त' के अपने हो सकते हैं, किन्तु मात्र तर्क से कोई बात सही नहीं हो जाती है। तर्क के साथ औचित्य और धार्मिक मर्यादाओं का भी ध्यान रखना आवश्यक है। अतः विधवा विवाह को काम-वासना की पूर्ति अथवा अपनी सन्तान के प्रति अतिमोह ही कहा जा सकता है, धार्मिक दृष्टिकोण कदापि नहीं। इसलिये इसके विरोध में बाबू सुमेरचन्द्र जी 'कौशल' आदि अनेक विद्वानों ने अपनी आवाज उठाई और बतलाया कि- विवाह जैसे पवित्र बन्धन को विधवा-विवाह के नाम पर कलङ्कित करना उचित नहीं हैं। उन्होंने अनेक धार्मिक एवं पौराणिक आख्यानों के माध्यम से विधवा-विवाह को अनुचित ठहराया है। इस सन्दर्भ में बारह वर्ष की उम्र से वैधव्य जीवन बिताने वाली माँश्री चन्दाबाई जी के निम्न उद्गार भी ध्यातव्य हैं। उनका कहना था कि- पातिव्रत्य ही नारी के लिये अमूल्य निधि है, इसे खोकर भारतीय नारी जीवित नहीं रह सकती है। इन्द्रियजन्य सुख कभी भी तृप्ति का साधन नहीं बन सकता है। जो समाज में विधवाविवाह का प्रचार करना चाहते हैं, वे धर्म और समाज के शत्रु हैं, जैन संस्कृति से अपरिचित हैं, उन्हें ब्रह्मचर्य की महत्ता मालूम नहीं ४ । समाज सुधारकों को उनकी सलाह थी कि सुधारकों को समाज सुधार करना है तो उन्हें ऐसी क्रान्ति करनी चाहिये, जिससे विधवाएँ उत्पन्न ही न हों, बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, जो कि विधवाओं की संख्या बढ़ा रहे हैं, तुरन्त बन्द होने चाहिए १५ । जैन समाज में तब और आज भी जैन संस्कृति की जड़ें मजबूत हैं। अतः पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित लोगों द्वारा विधवा-विवाह के समर्थन में अनेक सामाजिक ६४
SR No.525036
Book TitleSramana 1999 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy