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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९
पूज्य क्षुल्लक गणेश प्रसाद जी वर्णी महाराज ने हरिजन मन्दिर प्रवेश के पक्ष का समर्थन किया था। अत: कुछ कट्टरपन्थी जैन बन्धुओं ने उनसे पिच्छीकमण्डलु छीन लेने की भी धमकी दी थी। सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री एवं न्यायाचार्य पं० महेन्द्र कुमार जैन आदि ने उक्त बिल का समर्थन किया था। पं० फूलचन्द्र शास्त्री के अनुसार अन्य वर्ण वाले मनुष्यों के समान शूद्र वर्ण के मनुष्य भी जिन मन्दिर में जाकर दर्शन और पूजन करने के अधिकारी हैं। उनके अनुसार शूद्र मन्दिर में नहीं जा सकते, यह सामाजिक बन्धन है, योग्यता मूलक धार्मिक विधि नहीं। उन्होंने अपने पक्ष के समर्थन में सोमदेवसूरि कृत नीतिवाक्यामृत, आचार्य जिनसेनकृत महापुराण और आचार्य रविषेण कृत पद्मचरित के उद्धरण प्रस्तुत किये हैं, जिनमें कहा गया है कि - जिस शूद्र का आचार निर्दोष है तथा घर, पात्र और शरीर शुद्ध है, वह देव, द्विज और तपस्वियों की भक्ति, पूजा आदि कर सकता है। क्योंकि व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शास्त्रों को धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक अर्थ का अर्जन करने से वैश्य और निम्न श्रेणी की आजीविका का आश्रय लेने से शूद्र कहलाते हैं। नामकर्म के उदय से उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक है। उसके ब्राह्मण आदि चार भागों में विभक्त होने का एक मात्र कारण आजीविका है। मेधावी कविकृत धर्मसंग्रह श्रावकाचार के अनुसार दान, पूजन और स्वाध्याय-इन तीन कर्मों को करने का अधिकार शद्रों को है।
इन सभी शास्त्रीय तर्कों के बावजूद माँश्री चन्दाबाई जी का यह कथन भी मननीय है कि -हरिजन जैन मदिरों को पूज्य नहीं मानते हैं। आज तक कभी भी उन्होंने जैन मन्दिरों में जाकर दर्शन-पूजन नहीं किये हैं और न उनके आराध्यों की मूर्तियाँ जैन मन्दिरों में हैं। अतएव हरिजन मन्दिर प्रवेश बिल जैनों पर लागू नहीं होना चाहिए, और हुआ भी यही कि हरिजन मन्दिर प्रवेश बिल से जैन मन्दिर पृथक कर दिये गये। विधवा-विवाह
जैनधर्म आचार पर विशेष बल देता है। अत: विधवा-विवाह एक सामाजिक समस्या होकर भी धर्म से जुड़ी हुई है। क्योंकि विधवा-विवाह के विरोधी तो इसे धर्म से जोड़ते ही हैं, इसके समर्थक भी इसे धर्म से जोड़कर विधवा-विवाह का समर्थन करते हैं और इसे एक धार्मिक आन्दोलन का रूप देते हैं। वस्तुत: यह आन्दोलन बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव की देन है। विधवा-विवाह के समर्थकों में स्व० सूरजभान जी वकील, दयानन्द जी गोयलीय, पं० दरबारीलाल जी 'सत्यभक्त', पं० परमेष्ठीदास जी जैन एवं ब्र० शीतलप्रसाद जी के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।