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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९
___ इस प्रकार उपरोक्त गाथाओं के पाठ का पुनर्निर्धारण करने का प्रयास किया गया है। इन पुनर्निर्धारित गाथाओं में जहाँ अन्त लघु के बाद प्रथमार्द्ध में २९ मात्रा
और उत्तरार्द्ध में २६ मात्रा तथा अन्त गुरु के बावजूद प्रथमार्द्ध में ३१ और उत्तरार्द्ध में २८ मात्रा है, उसे सामान्य मानते हुए चर्चा नहीं की गयी है। वहाँ विकल्प से आवश्यकतानुसार अन्त में गुरु को लघु या लघु को गुरु मानना चाहिए।
संदर्भ १-२. प्रो० सागरमल जैन एवं सुरेश सिसोदिया, संपा० प्रकीर्णक साहित्यः मनन
और मीमांसा, आगम संस्थान ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक १४; उदयपुर १९९९ई०
सन: पृ०-२३०. ३. समवायांगसूत्र - सं० मधुकर मुनि, आगमप्रकाशन समिति, व्यावर ९८२;
समवाय ८४. ४. वही, समवाय १४. ५. प्राकृत पैंगलम संपा० डा० भोलाशंकर व्यास, प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी,
वाराणसी, खण्ड-१, पृ० ६. ६. सिद्धहेमशब्दानुशासन, सूत्र ८/२/७९. ७. वही, सूत्र ८/२/८९. ८. वही, सूत्र ८/१/२६०. ९. डॉ० के० आर० चन्द्र, संपा०- संक्षिप्त प्राकृत-हिन्दी कोश,- पृ० ४८६.