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________________ छन्द की दृष्टि से तित्थोगाली प्रकीर्णक का पाठ निर्धारण ११६३ आणिगणि१ दीवसिहार तुडियंगा३ भिंग४ कोविण५ उदुसुहा६ चेव।।३१ आमोदा७ य पमोदा८ चित्तरसा९ कप्परुक्खा१० य ।।२६ यहाँ द्वितीय चरण के चेव के चे को लघु मानने से मात्रा पूर्ण होती है। ११९५ सोऊण महत्थमिणं निस्संदं मोक्खमग्गसुत्तस्स । २९ ....................यत्ता मिच्छत्तपरम्मुहा होह ।।१८ यहाँ तृतीय चरण अनुपलब्ध है। १२०१ जं अज्जियं चरित्तं देसूणाए (वि) पुव्वकोडीए । २९ तं पि कसाइयमित्तो नासेइ नरो मुहुत्तेणं । २७ प्रस्तुत गाथा में (वि) को पादपूर्ति के रूप में शामिल करने से गाथा पूर्ण हो जाती है। १२०४ दुग्ग (ग्गे) भवकंतारे भममाणेहि सुइरं पणटेहिं । २९ दुलभो जिणोवइट्ठो सोगइमग्गो इमो लद्वो।। २७ प्रथम चरण में 'दुग्ग' के स्थान पर 'दुग्गे' करने से मात्रा पूर्ण होती है। १२११ जा जिणवरदिट्ठाणं भावाणं सद्दहणया सम्मं (?)।२९ अत्तणओ बुद्वीय य सोऊण य बुद्धिमंताणं ।।२७ यहाँ भी पूर्वार्द्ध के तीन य को हटा देने से पद्य अनुष्टुप छन्द का हो जाता है। यहाँ द्वितीय चरण के अन्त में 'सम्म' की जगह 'सम्मत्तं' करने से अर्थ स्पष्ट होने के साथ छन्द भी पूर्ण हो जाता है। १२१८ एत्य य संका कंखा वितिगिच्छा अन्नदिट्ठियपसंसा।।३० परतित्थिओवसेवा पंच (उ) हासेंति सम्मत्तं ।। २६ यहाँ उत्तरार्द्ध में उ को शामिल कर मात्रा पूरा किया जा सकता है। १२१९ संकादिदोसरहितं जिणसासणकुसलयादिगुण(?जुत्त)।। २६ एयं तं जं भणितं मूलं दुविहस्स धम्मस्स।।२६ यहाँ पूर्वार्द्ध के अन्त में (जुत्त) शामिल कर लेने से अर्थ और छन्द पूर्ण हो जाता है। १२२४ नाणाहिंतो चरणं पंचहि समितीहिं तिहिं गुत्तीहिं ।३३ एयं सीलं भणितं जिणेहिं तेलोक्कदंसीहिं ।। २८ यहाँ द्वितीय चरण में ‘समितीहिं' और 'तीहिं' को 'समितिहि' और 'तिहि' कर देने से तथा अन्त गुरु की लघु कर देने से मात्रा पूर्ण हो जाती है और अर्थ भी पूर्ववत बना रहता है।
SR No.525036
Book TitleSramana 1999 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1999
Total Pages166
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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