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श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९९ के ओ को लघु कर देने पर मात्रा पूर्ण होती हैं। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि सानुस्वार इकार तथा हिकार, एवं शुद्ध अथवा व्यञ्जनयुक्त एकार, ओकार संयुक्त रेफ तथा हकार से पूर्व का वर्ण - ये सभी विकल्प से गुरु होते हैं।' १५१ तो तं दसद्धवण्णं पिंडग (? भू) यं छमायले विमले । २८
सोहइ नवसरयम्मि व सुनिम्मलं जोइसं गयणे ।। २७
इसमें 'यं' के पहले के कोष्ठक के 'भू' को जोड़ देने पर अर्थ की स्पष्टता और मात्रा की पूर्णता हो जाती है इसी प्रकार १५२वीं गाथा के पूर्वार्द्ध के मूल 'क' को हटा कर कोष्ठक के 'य' और 'क्कं' को मूल गाथा में लाकर दिसियक्कं कर देने से अर्थ स्पष्ट होने के साथ मात्रा भी पूर्ण होती है। वर्तमान का 'दिसिक' शब्द अर्थ की दृष्टि से अप्रासंगिक है। कोष्ठक का 'मघ' शब्द यहां अप्रासंगिक लगता है। गाथा इस प्रकार
१५२ तह कालागरु-कुंदुरुयधूवमघ (मघ) मघेतदिसि (?य) क (?क्कं)।२६
काउं सुरकण्णाओ चिटुंति पगायमाणीओ ।।२७
यह 'गाहू' छन्द के अन्तर्गत आता है। १५९ तत्तो अलंबुसा१ मिसकेती (सी) २ तह पुंडरि (री) गिणी ३ चेव । २८
वारुणि ४ आसा ५ सव्वा ६ सिरी ७ हिरी ८ चेव उत्तरओ ।। २७ मा. ___ यहाँ पूर्वार्द्ध के (री) शब्द को मूल के 'रि' के स्थान पर रखने पर और अंतिम मात्रा को गुरु कर देने से ३० मात्रा हो जायेगी। २२५ छज्जति सुरवरिंदा उच्छंगगए जिणे धरेमाणा।३०
अभिणवजाए कंचणदुमे व्व पवर (?रे) धरेमाणा ।।२६
यहाँ उत्तरार्द्ध में अन्त में गुरु मात्रा होने से ‘पवर' शब्द के र के स्थान पर (रे) रखकर मात्रा पूर्ण किया है। २२९ सव्वोसहि-सिद्धत्थग-हरियालिय-कुसुमगंधचुण्णे य। २९
आणेति ते पवित्तं दह-नइ-तडमहि (ट्ठि) यं च सुरा । २६
प्रस्तुत गाथा के उत्तरार्द्ध के 'नई' का वैकल्पिक रूप 'नई' (नदी) रखने पर गाथापूर्ण होती है। २३१ अभिसिंचइ दस वि जिणे सपरि (री) वारो पहट्ठमुहकमलो। २९
पहयपडुपडह - दुंदुहि - जयसहुग्घोसणरवेणं ।। २७।।
प्रस्तुत गाथा के पूर्वार्द्ध में 'सपरिवारो' शब्द के रि की जगह (री) रख देने से पाठ पूर्ण हो जाता है। २४२ ससुरासुरनिग्घोसो कहकह-उक्कडि (ट्ठि) कलयलसणाहो। २९
सुव्वइ दससु दिसासुं पक्खुहियमहोदहिसरिच्छो।। २७