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छन्द की दृष्टि से तित्थोगाली प्रकीर्णक का पाठ निर्धारण यहाँ पर्वार्द्ध में 'उक्कडि' (छिन्न) के बदले प्रसंगानुसार 'उक्कट्ठि (हर्षध्वनि) शब्द उचित है तथा छन्द भी पूरा हो जाता है। २६१ सुठ्यरं जेसिं पुण कुसु (स्स) इपुण्णा निरंतरं कण्णा। २९
भावेण भण्णमाणं निसुणंतु सुराऽसुरा सव्वे ।। २७
यहाँ पूर्वार्द्ध में (कुसइ) कुश्रुति का व्याकरणसम्मत प्राकृत रूप नहीं है। 'श्रु' के र का सर्वत्रलवरां अवन्द्रे सूत्र से लोप होने के बाद अनादौशेषादेशौद्वित्वं सत्र से शेष स (शषो सः) का द्वित्व होकर कुस्सुई होना चाहिए। यहां कोष्ठक का (स्सु) सही
,
२६८ चुण्णं नाणावण्णं वत्थाणि य बहुविहप्पगाराइं। ३०
मुक्काई सहरिसेहिं सुरेहिं रयणाणि य बहूणि ।। २८
यहाँ उत्तरार्द्ध के तृतीया बहुवचन के रूप 'सहरिसेहिं सुरेहिं' के 'अनुस्वार रहित रूप' 'सहरिसेहि सुरेहि' कर अन्त लघु को गुरु करके छन्द को पूरा किया गया। ३०८ हेट्ठिमगेवेज्जाओ संभव, पउमप्पहं उवरिमाओ।३०
मज्झिमगेज्जचुयं वदामि जिणं सुपासरिसिं ।।२५ उपरोक्त गाथा के उत्तरार्द्ध में 'गेज्ज' (मथित) शब्द यहाँ अप्रासंगिक है। यहाँ विमान से च्युत होने का प्रसंग है। 'ग्रैवेयक' का प्राकृत रूप 'गेवेज्ज' होता है। इससे छन्द पूर्ति भी हो जाती है। ३१४ उसभो य भरहवासे, (?य) बालचंदाणणो य एरवए। २९
एगसमएण जाया दस वि जिणा विस्सदेवाहि।। २७ उपरोक्त पूर्वार्द्ध के कोष्ठक के (य) शब्द को मूल गाथा में शामिल कर देने से पादपूर्ति हो जाती है। ३४९ उसभो य भरहवासे (?य) बालचंदाणणो य एरवए। २९
___ अजिओ य भरहवासे, एरव्रयम्मि य सुचंदजिणो।। २७
उपरोक्त गाथा में कोष्ठक के (य) को मूल में शामिल कर पादपूर्ति कर दिया गया है। ३७३ चुलसीती १ बावत्तरि २ सट्ठी ३ पन्नास ४ चत्त ५ तीसा ६ य । २९
वीसा ७ दस ८ दो ९ एगं १० च हुति पुव्वाण लक्खाई ।। २७
इसमें पूर्वार्द्ध के ‘सट्ठी' शब्द का प्रतिपाठ सट्टि त्ति है जिसे मूल में ले आने पर छन्द पूर्ण हो जाता है। ३७४ चुलसीती११ बावत्तरि१२ (?य) सट्ठि१३ तीस१४ दस१५ पंच१६ तिन्नेव १७।२८
एगं च सयसहस्सं १८ वासाणं होति विनेयं। २६ यहाँ पूर्वार्द्ध में कोष्ठक के (य) शब्द को मूल गाथा में शामिल कर छन्द पूरा